छाई सारी धुंध छटे




गुँथे पुष्प जब एक डोर में
सुंदर सी बनती माला
भेद मिटे बस रंग खिले अब
तम का हट जाए जाला।।

कबसे देखें सूनी आँखें
बँटवारे की लीक हटे
भावों की उर्वर भूमि पर
छाई सारी धुंध छटे
बहे प्रेम तब बरसे करुणा
द्वेष-घृणा पर हो ताला।।

इक माटी में उपजे पौधे
कैसे भूले ममता को
लता वृक्ष से लिपट दिखाए
कैसे अपनी समता को
अंहकार सिर चढ़ कर बोले
स्वार्थ बना ऐसी हाला।।

अंतस में खिल उठे कुमुदिनी
मन चातक की प्यास बुझे
अंतर्तम की खोलो आँखें
देख राह फिर नई सुझे
हृदय किरण जब करे बसेरा
छटता अंधकार काला।।

अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'
स्वरचित मौलिक


टिप्पणियाँ

  1. सहृदय आभार आदरणीय 🙏🙏 सादर

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  2. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार ( 7 सितंबर 2020) को 'ख़ुद आज़ाद होकर कर रहा सारे जहां में चहल-क़दमी' (चर्चा अंक 3817) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    --
    -रवीन्द्र सिंह यादव

    जवाब देंहटाएं
  3. अंतस में खिल उठे कुमुदिनी
    मन चातक की प्यास बुझे
    अंतर्तम की खोलो आँखें
    देख राह फिर नई सुझे
    हृदय किरण जब करे बसेरा
    छटता अंधकार काला।।..वाह!बहुत ही सुंदर आदरणीय दी।
    सादर

    जवाब देंहटाएं

  4. कबसे देखें सूनी आँखें
    बँटवारे की लीक हटे
    भावों की उर्वर भूमि पर
    छाई सारी धुंध छटे
    बहे प्रेम तब बरसे करुणा
    द्वेष-घृणा पर हो ताला।।
    बहुत सुंदर संदेश।

    जवाब देंहटाएं
  5. इक माटी में उपजे पौधे
    कैसे भूले ममता को
    लता वृक्ष से लिपट दिखाए
    कैसे अपनी समता को
    अंहकार सिर चढ़ कर बोले
    स्वार्थ बना ऐसी हाला।।
    वाह!!!
    लाजवाब सृजन।

    जवाब देंहटाएं

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