बढती जाती और तृष्णा

तृषित चातक सम मन
भटकता सदा इस संसार में
तृषा स्वाति बूंद की
है कभी मिटती नहीं
बढती जाती तृष्णा नित
अग्नि सम धधकती हुई
अनभिज्ञ है मन उस ज्योति से
जो हृदय में है जल रही
नहीं मिलता वह ज्योति पुंज
जो हृदय में है छुपा
ढूंढता फिरता उसे मन
ऐसे इस नश्वर संसार में
जैसे कस्तूरी मृग वन में
फिरे कस्तूरी को ढूंढता
मोह का अंधकार घना
लोभ का बढा मायाजाल है
संतोष और धैर्य से
मन हुआ कंगाल है
ध्यान की बात मन में कभी आती नहीं
तृष्णा से मुक्ति तभी तो मिल पाती नहीं
ढूंढती ही जा रही होके मैं बावरी
डूबकर माया में तृप्ति रस की गागरी
सांसारिकता की मृगमरीचिका
ध्यान अपनी ओर खींचती
बढ जाती है और तृष्णा
जब तक ज्ञानज्योति जलती नहीं।

अभिलाषा चौहान

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