दूर क्षितिज पर

जलधि के तट पर
खड़ी निहारती
उत्ताल तरंगों को
सम्मोहित सी मैं
डूब जाती हूँ 
उस अनिर्वचनीय 
सौंदर्य में
देखती मेरी निगाहें
उल्लास का अतिरेक
जब दूर क्षितिज पर 
मिलते अवनि अंबर 
करते प्रेम का इजहार 
तब लहराती तरंगे
छू लेना चाहती आकाश
तैरते बादल खंड
साक्षी हैं इस मिलन के
आतुर खगवृंदों की अवलियां
बन गलहार सुशोभित होती
जैसे वर वधू ने पहनाई
इक दूजे को जयमाल
सुरभित पवन होके मगन
कर रही मंगलगान
रश्मिरथी का आ रहा यान
देने नवजागरण का संदेश
भूल गई मैं अपनी सुध
देख क्षितिज का
सौंदर्य अनुपम

मेरी रचनाएं स्वरचित है।

अभिलाषा चौहान 









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