आकुल अंतर

चित अतृप्त व्यथित , व्याकुल चंचल,
कुछ पाने को, नित रहे आकुल

सुप्त ज्ञान बुद्धि, विवेक निश्चल,
इक पल को भी , न पड़ता कल।

भावों की गगरी, भरी छल छल,
हृदय मची,  हलचल हलचल।

मैं विवश व्यथित, प्यासी हरपल,
नहीं स्वार्थ रहित,  न हूं निश्छल।

पीती रहती, चुपचाप गरल,
हर ओर मचा है,  कोलाहल।

कुछ पाने को, अंतर आकुल,
ये छलना छलती,  पल पल पल।

इन सबसे दूर, मैं जाऊं निकल,
उर रस की धार, बहे अविरल ।

अभिलाषा चौहान



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