अहम-वहम
दुश्मन इंसान के
जो निभाते हैं दुश्मनी
बडी़ शिद्दत से
इन्हें पालकर
जीता है इंसान
इस भ्रम में
सब कुछ हैं हम
अहम ने किया
न जाने कितने
शहंशाहों का अंत
मिट गए वजूद
पर न मिटा अहम
वहम ने उजाड़े
न जाने कितने परिवार
छिन गया सुकून
लुट गया सुख
फिर भी
न मिटा अहम
न मिटा वहम
ये जडें जमा बैठें हैं
इंसान के जीवन में
मकडी के जालों से
इनमें फंसा इंसान
फडफडाता है
पर अपने बुने जालों से
मुक्त कहां हो पाता है
लुटा अपना सर्वस्व
भ्रम में ही मिट जाता है।
अभिलाषा चौहान
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