दीप तुम कब तक जलोगे ?
दीप तुम कब तक जलोगे?
स्वयं को ही छल रहे हो?
बस अकेले चल रहे हो..
यामिनी को भेद लोगे,भ्रांत ये अवधारणा है।
तुम विवश क्लांत हो कितने,यही सदा विचारणा है।
आँधियों से जूझते हो,हारते थकते नहीं हो।
पंथ से परिचित भले हो,आकलन करते नहीं हो।
हाथ खाली फिर मलोगे!
कल्पना में पल रहे हो ।
बस....
देख लो इतिहास अपना,और चिंतन आज कर लो।
लक्ष्य को क्या साध पाए,इस मिथक से अब उबर लो।
अहम को अपना बनाकर,वेदना तुमने बढ़ाई।
मोह से लिपटे रहे बस,आस कब तुमने जगाई।
सूर्य बनकर तुम उगोगे!
नींद में क्यों चल रहे हो?
बस...
क्षीण क्षणभंगुर जगत में,अंत सबका है सुनिश्चित।
धर्म जलना है तुम्हारा,कर्म का क्या भान किंचित।
प्रेम में जलता पतंगा,क्या बने उसका सहारा?
तेल-बाती के बिना तो,व्यर्थ है जीवन तुम्हारा।
बीतता बस कल बनोगे।
क्यों दुखों में गल रहे हो?
बस....
अभिलाषा चौहान
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (18-1-22) को "दीप तुम कब तक जलोगे ?" (चर्चा अंक 4313)पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
सहृदय आभार सखी 🙏 सादर
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर मंगलवार 18 जनवरी 2022 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
सहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएंवाहहह दीदी👌👌👌अप्रतिम
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी 💐
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएंदीप से ही सवाल
जवाब देंहटाएंक्या कारण हो सकता है...
सब एक दूसरे के सहारे हैं
आपकी रचना बेहद पसन्द आयी
आदरणीया दीदी आप मेरे ब्लॉग पर आई,मेरे मन का दीप आपकी ही प्रतीक्षा में रात-दिन जल रहा था।आपके आशीष और प्रतिक्रिया से दीप का जलना सार्थक हुआ।आत्मीय आभार आपका।यह केवल एक रचना नहीं,मेरा स्वयं से सवाल है कि आखिर क्यों और किस उद्देश्य से मेरे प्राणों का दीप निरंतर जल रहा है।सादर
हटाएंक्षीण क्षणभंगुर जगत में,अंत सबका है सुनिश्चित।
जवाब देंहटाएंधर्म जलना है तुम्हारा,कर्म का क्या भान किंचित।
प्रेम में जलता पतंगा,क्या बने उसका सहारा?
तेल-बाती के बिना तो,व्यर्थ है जीवन तुम्हारा।
वाह क्या लेखनी है बहुत ही उम्दा!
बहुत बहुत बहुत ही खूबसूरत रचना...!
सहृदय आभार प्रिय मनीषा
हटाएंआपको यह रचना पसंद आई तो मेरा सृजन सार्थक हुआ।जलना दीप की नियति है।सभी को पता है।पर मेरा सवाल स्वयं से है।सादर
एक नजरिया यह भी है.
जवाब देंहटाएंदीप को जलना फिर भी है.
जग को आलोकित कर न सका.
पर कुटिया का अँधेरा दूर हुआ.
आत्मीय आभार आपका आदरणीया नुपुर जी। मुझे अत्यन्त प्रसन्नता है कि आप मेरे ब्लॉग पर आई और अपनी प्रतिक्रिया से सृजन को सार्थक बनाया।दीप कितना भी अंधकार से लड़ ले,पर उसके हृदय में सदा अँधेरा रहता है।चिराग तले अंधेरा..यहाँ दीप को प्रतीक बना कर मैंने स्वयं से ही प्रश्न किया है।
हटाएंसादर
बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंवैसे हम लोग दीप को जलता हुआ क्यों कहते हैं ? जलती तो बाती है ।
समुचित प्रश्न !
हटाएंआदरणीया दीदी सादर प्रणाम
हटाएंआप मेरे ब्लॉग पर आई और अपनी प्रतिक्रिया से सृजन को सार्थक बनाया।यह मेरे लिए आपका आशीर्वाद है।आपने सही प्रश्न किया है।यही इस रचना को खास बनाता है।क्या दीप का जलना पर्याप्त है?
बाती और तेल के बिना उसका अस्तित्व है, नहीं वह जलता है और लड़ता है और सदा इस भ्रम में रहता है कि वही सर्वेसर्वा है। लेकिन दीप तले हमेशा ही अंधेरा होता है।यह अंधेरा जो कहीं न कहीं मन में समाया है।बस उसी को लेकर यह सृजन किया है।अगर मन का अंधेरा ही दूर नहीं तो और लोगों के जीवन का अंधेरा कैसे दूर करेंगे।सादर
अति सुन्दर शिल्प एवं कृति ।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार प्रिय अमृता जी आप ब्लॉग पर आई।आपकी प्रतिक्रिया पाकर सृजन सार्थक हुआ सादर। आपने भी आदरणीया दीदी के प्रश्न पर सहमति जताई।शायद मैं आपको भी उस प्रश्न का उत्तर दे पाई हूँ।सादर
हटाएंबहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएंदीप बेचारा करे भी तो क्या करे? उसे तो लोक-कल्याण हेतु जलना ही आता है !
सहृदय आभार आदरणीय आपकी प्रतिक्रिया पाकर सृजन सार्थक हुआ
हटाएंशुद्ध हिन्दी की भावपूर्ण सुंदर कविता।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय, आपकी प्रतिक्रिया पाकर सृजन सार्थक हुआ
हटाएंसच कहा सखी आपने दीपक बन जलते जाने से बस एक परीधी तक तमसा का हरण होगा,वो भी तेल बाती के बिना असंभव है।
जवाब देंहटाएंदीपक प्रतीक मात्र है सखी गहन अर्थ पूर्ण सृजन।
वाह।
जी सखी सत्य कहा आपने,आपकी प्रतिक्रिया पाकर सृजन सार्थक हुआ।आपने इस रचना के मर्म को समझा।दीप हो या प्राण या कोई मानव उसे कभी भ्रमित नहीं होना चाहिए।
हटाएंबेहतरीन अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार बहना
हटाएंवाह वाह अभिलाषा जी ! खूब चेताया आपने दीप को ! लेकिन जसकी नियति ही तिल तिल जलना हो उसे कौन क्षय होने से रोक पाया है ! बहुत ही सुन्दर भावाभिव्यक्ति ! शुभकामनाएं !
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीया।आप मेरे ब्लॉग पर आई और आपकी अमूल्य प्रतिक्रिया पाकर सृजन सार्थक हुआ।दीप हो प्राण तिल -तिल जलना उसकी नियति तो है पर उसे भ्रमित नहीं होना चाहिए।आपने रचना का मर्म समझा।मेरे लिए यह प्रेरणादाई है।
हटाएंबहुत ही सुंदर सृजन अभिलाषा जी
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार 🙏सादर
हटाएंवाह, गूढ़ अभिव्यक्ति । दीपक और बाती एक दूसरे के पूरक हैं
जवाब देंहटाएं.. बेहतरीन रचना के लिए हार्दिक शुभकामनाएं 🌹👌
रचना के मर्म को समझने के सहृदय आभार जिज्ञासा जी।आपकी प्रतिक्रिया पाकर सृजन सार्थक हुआ है।आपके शब्द मेरे लिए प्रेरणादायक है।
हटाएंशब्द शब्द हृदय को छूते।
जवाब देंहटाएंदीपक को प्रतीक बनाकर क्या सृजन किया है सखी सराहनीय।
किस बंद को उठाऊं समझ नहीं पाई... पलकें भीग गई।
अपना खयाल रखें।
सादर नमस्कार
सहृदय आभार सखी आपकी प्रतिक्रिया पाकर सृजन सार्थक हुआ। आपको रचना पसंद आई यह मेरे लिए प्रेरणादायक है।आप भी अपना ख्याल रखें 🙏सादर
हटाएंनैराश्य के घोर तिमिर में आस बनकर मैं पलूँगा।
जवाब देंहटाएंऔर बनकर नचिकेता मैं, यमराज के भी द्वार चलूंगा।
इस जगत में कुछ न अपना, चाहे तेल चाहे हो बाती,
पथ-ज्योति की 'अभिलाषा'बनकर मैं जलूंगा, मैं जलूंगा।
बधाई अभिलाषा जी!
आदरणीय आपकी अमूल्य प्रतिक्रिया पाकर सृजन सार्थक हुआ। बहुत सुंदर लिखा आपने।दीप का दृढ़ संकल्प निराशा में आस की ज्योति बनकर तमस से लड़ने को सदैव व्यग्र रहता है।आपके अमूल्य शब्दों ने मुझे उत्साहित किया।आपका सहृदय आभार 🙏सादर
हटाएंदिल को छूती बहुत ही सुंदर रचना,अभिलाषा दी।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार प्रिय ज्योति जी
हटाएंसहृदय आभार आदरणीया 🙏 सादर आपकी प्रतिक्रिया पाकर सृजन सार्थक हुआ
जवाब देंहटाएंमैंने गीत भी पढ़ा एवं उस पर आई प्रतिक्रियाओं पर आपके द्वारा दिए गए उत्तर भी पढ़े। आपने सम्भवतः स्वयं को ही दीप कहते हुए स्वयं से ही बात की है। 'यामिनी को भेद लोगे,भ्रांत ये अवधारणा है', ठीक ही कहा आपने। औरों के ग़म बांटने से अपने ज़ख़्म कहाँ भरते हैं अभिलाषा जी? आदर्शवादी, संवेदनशील एवं सद्गुणी व्यक्ति प्रायः स्वयं को ही छलते हैं। और - अपना मन छलने वालों को चैन कहाँ, आराम कहाँ?
जवाब देंहटाएंसुंदर अभिव्यक्ति
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