मैं बस उसकी अनुभूति हूँ
हो प्राण तुम्हीं इस जीवन के,
मैं बस तुमको ही जीती हूँ।
वन-उपवन से महक रहे हो,
मैं बस उसकी अनुभूति हूँ।
तुम पूर्ण गगन सम विस्तृत हो, चंद्र-सूर्य से हो न्यारे।
चमचम तारों से चमके,बनकर जीवन के उजियारे।
मैं घूम रही हूँ पृथ्वी सी,पाती हूँ तुमसे सारे रस।
जलधि सा छलके प्रेम सदा, आलिंगन में लेता कस।
बन अमृत वारिद बरसे हो
मैं बस उसको पीती हूँ।
हो प्राण तुम्हीं इस जीवन के,
मैं बस तुमको ही जीती हूँ।
चहके पक्षी जब नीड़ों में,मैं उठती हूँ ले अँगड़ाई।
कलियों ने घूँघट पट खोले,ऊषा प्राची में मुस्काई।
किरणें करती स्पर्श मुझे,सुख भरते हैं फिर झोली में।
हाँ प्रेम तुम्हारा बोल उठा,कोयल की मीठी बोली में।
विरह-व्यथा की कथरी को,
हिय अंतर में चुप सीती हूँ।
हो प्राण तुम्हीं इस जीवन के,
मैं बस तुमको ही जीती हूँ।
ये पर्वत से जो दुख सारे, निर्झर बन नयनों से बहते।
उफनी तरिणी जब पीड़ा की,तटबंध बने तुम सब सहते।
मैं लता बनी लिपटी तुमसे,तुम वृक्ष समान सहारा हो।
ये क्षितिज मिलन का है साक्षी,ये सुंदर संसार हमारा हो।
अवनि-अंबर को बाँध सके
मैं तो बस वह प्रीति हूँ।
हो प्राण तुम्हीं इस जीवन के,
मैं बस तुमको ही जीती हूँ।
अभिलाषा चौहान
बहुत दर्द भरा मार्मिक गीत !
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएंवाह!सखी ,बेहतरीन सृजन ।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी 💐💐 सादर
हटाएंविरह का सजीव चित्रण । सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीया दीदी🙏🙏सादर
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(०७-०१ -२०२२ ) को
'कह तो दे कि वो सुन रहा है'(चर्चा अंक-४३०२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सचमुच बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएंवाह कितनी सुंदर जितनी जितनी तारीफ की जाए कम है सच में 😍💓😍💓
जवाब देंहटाएंएक-एक पंक्ति बहुत ही शानदार और लाजवाब है शब्दों की खूबसूरती तो कमाल की है! सच में मंत्र मुक्त करने वाली रचना!
काश कि मैं भी ऐसा लिख पाती!🥺🥺
सहृदय आभार प्रिय मनीषा
हटाएंआपको रचना पसंद आई तो सृजन सार्थक हुआ।भाव हृदय में उत्पन्न होते हैं और उनकी अनुभूति ही शब्द चयन में सहायक होती है।आप भी अच्छा लिखती हैं। इसलिए निराश या दुखी होने की आवश्यकता नहीं।सादर
दिल को छूती सुंदर रचना,अभिलाषा दी।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना दी।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावपूर्ण गीत !
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जवाब देंहटाएंये पर्वत से जो दुख सारे, निर्झर बन नयनों से बहते।
उफनी तरिणी जब पीड़ा की,तटबंध बने तुम सब सहते।
मैं लता बनी लिपटी तुमसे,तुम वृक्ष समान सहारा हो।
ये क्षितिज मिलन का है साक्षी,ये सुंदर संसार हमारा हो।..
बहुत ही भावभीना, मन को छूता स्नेह का अटूट समर्पण ।
सुंदर सराहनीय रचना के लिए आपको बहुत बधाई अभिलाषा जी ।
अति सुन्दर भाव एवं कृति ।
जवाब देंहटाएंबड़ा ही उम्दा सृजन
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