याद आता है बचपन

बच्चे जो घर से दूर
बहुत दूर
पडे़ हैं पेट की खातिर
करते जीवन की
जद्दोजहद का सामना!
आता है उन्हें याद मां का आंचल
पिता की स्नेही छत्रछाया
अपना बचपना
वो बेफिक्री का जीवन
घर आंगन मोहल्ला गलियां
जहां गुजारा अपना बचपन।
पेट की आग
जीवन का संघर्ष
करता है मजबूर
परदेश में बसने को।
तड़पाता है अकेलापन
जब याद आता है बचपन
वो सुकून वो आराम
वो बिन मांगे सब मिल जाना
और भी बहुत कुछ
जो मिलता था अक्सर
मां-बाप की छत्रछाया में।
जीवन की कठिनताएं
बना देती यांत्रिक जीवन
जिम्मेदारियां कर देती मजबूर
परदेश में जीने को।
तन्हाईयां रह रह कर उन्हें
तड़पाती है
भीग जाती है आंखें
अपनों की याद में।
न चाहकर भी
पडे़ रहते हैं बेगाने देश में
करते याद
पल - पल हर क्षण
अपना बचपन।

अभिलाषा चौहान



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