उलझन ही उलझन है

कैसे देश चलेगा आगे !
कैसे देश बढ़ेगा आगे !
सबको कैसे खुश रख पाएं,
कैसे वोट जनता का पाएं ?
ये बहुत बड़ी उलझन है।
जाल वोट का बहुत बड़ा है,
सबका ध्यान वोटों पर गड़ा है।
कैसे जनता को उलझाएं ?
उल्लू अपना सीधा कर पाएं।
जाति-धर्म को ढाल बनाकर,
मंदिर-मस्जिद की बात उठाकर,
आरक्षण की आग लगाकर,
प्रांतवाद की लहर उठाकर
ये पैदा करते उलझन हैं।
बढ़ती महंगाई रोक न पाएं,
नित नए - नए ये टैक्स लगाएं,
जीवन जनता का उलझाएं,
जनता इनसे बच न पाए,
जीवन जीने की उलझन है।
महंगी सुविधा सस्ता जीवन,
आसानी से न मिलते साधन,
सबके जीवन में है उलझन,
चिंता में गल जाता है तन,
फिर भी न सुलझे ऐसी उलझन।
कथनी-करनी में फर्क बड़ा है
जनता की कौन सुनने खड़ा है
समस्याओं से घिरी है जनता,
हर कोई अपना सिर धुनता,
हर ओर यही उलझन है।

अभिलाषा चौहान



चित्र गूगल से साभार 






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