बैठी सोच रही है मुनिया

कैसी है निर्मोही दुनिया,
बैठी सोच रही है मुनिया।
होते हाथ खिलौने मेरे,
कुछ सुख होते जीवन में मेरे।
मां-बाप भी कहीं भटक रहे हैं,
भूखे बच्चे उन्हें खटक रहें हैं।
इसीलिए करनी है मजदूरी,
भाग्य लिखा लाई मजबूरी ।
जब तक न बनें सारी लड़ियाँ,
तब तक भूख में काटूं घड़ियाँ।
बारूद के ढ़ेर पर हूँ मैं बैठी,
मानवता भी मुझसे है ऐंठी।
बचपन क्या होता न जाना,
काम करूं तब मिलता खाना।
मैले वस्त्र और मुख पर उदासी,
गरीबी की मैं बन गई दासी।
इसीलिए न बैठूं मैं खाली,
चूल्हा जले तो आए दीवाली।
बाल मजदूरी अपराध सुना है,
करके काम पेट भी भरना है।
काम बहुत करवाते मुझसे,
देते हैं बस थोड़े से पैसे।
कब बदलेगा भाग्य विधाता ,
हम बच्चों पर तरस न आता।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित

टिप्पणियाँ

  1. बैठी सोच रही है मुनिया
    कैसी है निर्मोही दुनियां
    श्रमिक दिवस पर सुंदर प्रस्तुति

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