इंसानियत ही रीढ़ है...

इंसानियत ही रीढ़ है,
इस मानव समाज की।
होते हैं ऐसे लोग भी,
जो बचाते मानवता की लाज भी।
जिनके दम से ये समाज,
सिर उठाकर जी रहा।
जो स्वयं गरल नीलकंठ ,
बन के है पी रहा।
उन्हीं के दम पर अब भी,
ये समाज आगे बढ़ रहा।
थोड़ा सुकून मन में है,
कहीं तो इंसान पल रहा।
बिगड़ते इस दौर में,
लगा मानवों का  मुखौटा।
हैवान अपनी हैवानियत से,
इंसानियत को छल रहा।
युगों-युगों से ये कहानी,
चलती चली आ रही।
कोई बना कंस तो ,
कोई दुर्योधन बन रहा।
जोंक बनकर ये असुर,
इंसानियत का रक्त चूसते।
दुर्बल भले ही हो जाए,
मैंने देखा इंसानियत को जूझते।
कलंकित करते हैं जो ,
मानवों के नाम को।
ऐसे नरपिशाचों का,
समाज में न स्थान हो।


अभिलाषा चौहान
स्वरचित, मौलिक

टिप्पणियाँ

  1. सच कहा अहि ... दूषित कलुषित मानसिकता जितना जल्दी समाज से बाहर हो उठा अच्छा है ...

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    उत्तर
    1. सहृदय आभार आदरणीय 🙏 आपने बिलकुल सही कहा है

      हटाएं
  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
    १७ जून २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत खूब कहा प्रिय सखी ।

    जवाब देंहटाएं

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