ये दुनिया एक छलावा

ये भौतिक चकाचौंध
ये चमकती दुनिया
है एक छलावा;
कहां देती है ये
मानसिक तृप्ति;
कहां मिलता इसमें
आत्मिक आनंद!
कहां है इसमें
स्वजनों का स्नेह!
बस छल ही छल ?
भागता रहता ताउम्र,
इंसान बुझाने अपनी प्यास!
यह मृगमरीचिका
भटकाती-उलझाती;
स्वर्ण मृग को पाने की चाह,
सदियों से उसे छलती जाती।
साम-दाम-दंड-भेद से
पाना चाहता वह तमाम सुख;
ये सुख-सुविधाएं,
छलती उसे निरंतर!
इनमें डूबता-उतराता,
भागता निरंतर;
बस मिलता उसे,
यांत्रिक जीवन;
मशीन बनकर!
कमाने-खाने में निकली उम्र;
विपत्ति में रह जाता अकेला,
तब समझ आता,
कि ये दुनिया है छलावा;
जहां साथ सब है स्वार्थवश!
पर हर कोई है अकेला,
अपनी पीड़ा को'
खुद ही पीता!!

अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक

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