मूक हुई आवाजें
चलें दोहरी चालें
सत्ता फंदा नित कसती
बेबस सी ये जनता
दो पाटों में ही पिसती।
तेल नौन सब फीके
दाल दूर है थाली से
फोड़ रहा है माथा
जूझ रहा बदहाली से
बढ़ा रेल का भाड़ा
दिल्ली निर्धन पर हँसती।।
आंखों के सब सपने
हैं दूर गगन के तारे
खाली खाली जीवन
सब चिंताओं के मारे
घुन सा लगता तन में
ये भूख कील सी धँसती।।
कठपुतली बनते सब
आँख मूँद सच्चाई से
मूक हुई आवाजें
बढ़ती इस मँहगाई से
जाल बुना मकड़ी सा
खुशियाँ जिसमें हैं फँसती।।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय सादर
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (03-02-2021) को "ज़िन्दगी भर का कष्ट दे गया वर्ष 2021" (चर्चा अंक-3966)
जवाब देंहटाएंपर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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सहृदय आभार आदरणीय सादर
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 02 फरवरी को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय सादर
हटाएंबहुत खूब ...
जवाब देंहटाएंसमसामयिक रचना ...
सहृदय आभार आदरणीया सादर
हटाएंआंखों के सब सपने
जवाब देंहटाएंहैं दूर गगन के तारे
खाली खाली जीवन
सब चिंताओं के मारे
वाह...
सहृदय आभार आदरणीया सादर
हटाएंचुभने वाला सच कहा है जिसे सहने के सिवा कोई चारा नहीं है निरीह जनता के पास ।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय सादर
हटाएंआंखों के सब सपने
जवाब देंहटाएंहैं दूर गगन के तारे
खाली खाली जीवन
सब चिंताओं के मारे
घुन सा लगता तन में
ये भूख कील सी धँसती।।
सुंदर....जनता बस सह ही सकती है...
सहृदय आभार आदरणीय सादर
हटाएंसामयिक व प्रभावशाली सृजन।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय सादर
हटाएंतेल नौन सब फीके
जवाब देंहटाएंदाल दूर है थाली से
फोड़ रहा है माथा
जूझ रहा बदहाली से
बढ़ा रेल का भाड़ा
दिल्ली निर्धन पर हँसती।।
सुंदर, सशक्त अभिव्यक्ति!--ब्रजेंद्रनाथ
सहृदय आभार आदरणीय सादर
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