शून्य होते भाव सारे
शून्य होते भाव सारे
प्राण को कैसे जगाऊँ
शब्द भी निश्चल पड़े हैं
अर्थ से कब बाँध पाऊँ।।
घोर छाई है निराशा
लेखनी भी रो रही है
आस की उजली किरण को
ढूँढती सी वो कहीं है
व्याकरण उलझा हुआ सा
छंद कैसे छाँट लाऊँ।।
यह अधूरा ज्ञान कैसा
प्यास कैसी ये जगी है
बिंब भूले राह अपनी
बात कब ये रस पगी है
लक्ष्य का संधान कर लूँ
नीड़ कविता का सजाऊँ।।
नव प्रतीकों को गढ़े पर
क्षीणता कब भेद पाए
कल्पना मरती हुई सी
जब नयन प्रज्ञा चुराए
टूटती सी लय कहे अब
हार को माथे लगाऊँ।।
अभिलाषा चौहान
बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी 🙏🙏 सादर रचना आपकी प्रतिक्रिया पाकर सफल हुई।सादर
हटाएंव्यथा की कथा
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी 🙏🙏 सादर रचना आपकी प्रतिक्रिया पाकर सफल हुई।सादर
हटाएंसुन्दर और भाव-भीना गीत।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏🙏 सादर रचना आपकी प्रतिक्रिया पाकर सफल हुई।सादर
जवाब देंहटाएंइस उत्कृष्ट कविता का पारायण करके महान कवयित्री महादेवी वर्मा जी की स्मृति मानस में कौंध गई । हृदय के पोर-पोर से आपका अभिनंदन अनुराधा जी ।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर आपकी प्रतिक्रियाएं और भी श्रेष्ठ सृजन करने को प्रेरित करती है।
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