अंबर का फटता सीना



देख धरा की पीर भयंकर

अंबर का फटता सीना

प्यासी नदियों की आकुलता

सागर का आँसू पीना।।


तोड़ बही तटबंधों को जब

धाराधर की ये धारा

कृत्रिमता को रोंद रही फिर

जीवन बंदी है कारा

स्वार्थ बहे मिट्टी के जैसा

हुआ अहम का पट झीना।।


जल प्लावन सब तोड़ रूढियाँ

धोता जग के पापों को

मानवता फिर भोग रही है

दानवता के शापों को

बीच भँवर में डोले नैया

अपना हक उसने छीना।।


ढहते पर्वत लिखें कहानी

मानव की मनमानी की

मृत ठूँठों ने हँसी उड़ाई

दिखे न चूनर धानी सी

तैर रहे सपनों को पकड़े

मरना सरल कठिन जीना।।




अभिलाषा चौहान

स्वरचित मौलिक




टिप्पणियाँ

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-2-21) को "माता का करता हूँ वन्दन"(चर्चा अंक-3979) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    कामिनी सिन्हा

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुन्दर रचना है ...
    धरती की पीड़ा का असल जिम्मेवार भी तो इंसान ही है ... पीड़ा अब इंसान की पीड़ा बनती जा रही है ...

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर और सार्थक अभिव्यक्ति

    जवाब देंहटाएं

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