देख युद्ध जब ठहर गया


रणभूमि सा बना ये जीवन

स्वार्थ हृदय में लहर गया

घृणा-द्वेष की बसती बस्ती

प्रेम युक्त वह पहर गया।।


लोलुपता जब मन पर हावी

मार्ग पतन के खुल जाते

सद्गुण सारे होम हुए तब

नीति-न्याय कब बच पाते

मन में रावण-राम लड़े जब

संकट फिर से गहर गया

घृणा-द्वेष की बसती बस्ती

प्रेम युक्त वह पहर गया।।


अपनी-अपनी रेखा खींची

खाई और बनी गहरी

बंद कपाटों पर फिर आकर

चीख किसी की कब ठहरी

मानवता ने भरी सिसकियाँ

दानव का ध्वज फहर गया

घृणा-द्वेष की बसती बस्ती

प्रेम युक्त वह पहर गया।।


राख भले ही ठंडी हो पर

रहती उसमें चिंगारी

आशा मन में क्षीण शेष हो

सच्चाई फिर कब हारी

तीरों की टंकार सुनिश्चित

देख युद्ध जब ठहर गया

घृणा-द्वेष की बसती बस्ती

प्रेम युक्त वह पहर गया।।


अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'

सादर समीक्षार्थ


टिप्पणियाँ

  1. अति सुंदर भावपूर्ण सृजन प्रिय अभिलाषा जी।
    सस्नेह।

    जवाब देंहटाएं
  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(१६-०१-२०२१) को 'ख़्वाहिश'(चर्चा अंक- ३९४८) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    --
    अनीता सैनी

    जवाब देंहटाएं
  3. भावपूर्ण भावाभिव्यक्ति अभिलाषा जी ।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत बहुत भावपूर्ण सुगठित रचना

    जवाब देंहटाएं

  5. लोलुपता जब मन पर हावी

    मार्ग पतन के खुल जाते

    सद्गुण सारे होम हुए तब

    नीति-न्याय कब बच पाते

    मन में रावण-राम लड़े जब

    संकट फिर से गहर गया

    घृणा-द्वेष की बसती बस्ती

    प्रेम युक्त वह पहर गया।।..सुन्दर भाव भरी सारगर्भित कृति..

    जवाब देंहटाएं
  6. रणभूमि सा बना ये जीवन

    स्वार्थ हृदय में लहर गया

    घृणा-द्वेष की बसती बस्ती

    प्रेम युक्त वह पहर गया।। भावपूर्ण, बहुत ही सुन्दर सृजन - -


    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. रचना के मर्म को समझने के लिए सहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर

      हटाएं

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