आग सी मन में लगी है
याद की बदली घिरी जब
प्यास सी मन में जगी है।
भीड़ में सब हैं अकेले
प्रेम के सब स्त्रोत सूखे
भावनाएँ मर चुकी हैं
बोलते हैं बोल रूखे
देखकर ये चाल शहरी
आग सी मन में लगी है
याद की बदली.........।।
धान के वे खेत प्यारे
भोर होते गीत गाते
पनघटों पे कंगनों के
राग कैसे गुनगुनाते
गंध सौंधी टिक्करों की
आज भी मन में पगी है
याद की बदली.........।।
प्रीत की नदियाँ सुहानी
बाँटती थी पीर सबकी
बात करते आँगनों में
रोज खुशियाँ थी बरसती
स्मृति पटल पर गाँव की वो
फिर गली छाने लगी है
याद की बदली.............।।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक
बहुत सुन्दर अभिलाषा जी !
जवाब देंहटाएंमैं गाँव में तो कभी नहीं रहा लेकिन कभी-कभार गाँव घूमने का आनंद ज़रूर उठाया हैं
आपने उन सुहाने अनुभवों की याद ताज़ा कर दी.
सहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर और मधुर रचना है ।शुभ कामनाएं ।
हटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 10 जनवरी 2021 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंधान के वे खेत प्यारे
जवाब देंहटाएंभोर होते गीत गाते
पनघटों पे कंगनों के
राग कैसे गुनगुनाते
गंध सौंधी टिक्करों की
आज भी मन में पगी है
वाह!!!!
लाजवाब नवगीत।
सहृदय आभार सखी 🌹 सादर
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएंसुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएंबहुत सुन्दर और भावप्रवण।
जवाब देंहटाएंविश्व हिन्दी दिवस की बधाई हो।
सहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएंवाह .....सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंगांव के परिदृश्य के सौंदर्य का वर्णन बहुत ही मनोहारी ढंग से चित्रित किया है आपने अभिलाषा जी,
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी 🌹 सादर
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