वो कली मासूम सी
बेड़ियों ने रूप बदले
रख दिया तन को सजाकर
वो कली मासूम सी जो
देखती सब मुस्कुराकर।
शूल बोए जा रहे थे
रीतियों की आड़ में जब
खेल सा लगता उसे था
जानती सच ये भला कब
छिन रहा बचपन उसी का
पड़ रहीं थीं सात भाँवर।।
छूटता घर आँगना अब
नयन से नदियाँ बहीं फिर
हाथ में गुड़िया लिए वह
बंधनों से अब गई घिर
आज नन्हें पग दिखाएँ
घाव सा छिपता महावर।।
बोझ सी लगती सदा है
बेटियाँ क्यों है पराई
मूक रहती और सहती
ठोकरें और मार खाई
वेदना का घूँट पींती
क्या मिला सबकुछ गँवाकर।।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक
बहुत बहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंबिटिया की महिमा अनन्त है।
बेटी से घर में बसन्त है।।
बिल्कुल सही कहा आपने आदरणीय 🙏 सहृदय आभार 🙏🏼 सादर
हटाएंबेड़ियों ने रूप बदले
जवाब देंहटाएंरख दिया तन को सजाकर
वो कली मासूम सी जो
देखती सब मुस्कुराकर।
सही कहा कब तक बेटियों को परायी करके इन बंधनो में जकड़ते रहेंगे..
बहुत ही हृदयस्पर्शी नवगीत।
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(२३-०१-२०२१) को 'टीस'(चर्चा अंक-३९५५ ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी
सहृदय आभार सखी 🌹 सादर
हटाएंपता नहीं कब तक यह सवाल मथते रहेंगे...
जवाब देंहटाएंकभी लगता हमारी पिछली पीढ़ियाँ ज्यादा बेड़ियों में जकड़ी रहीं
कभी लगता उन्हें आज़ादी का एहसास कहाँ था...
हमारी पीढ़ियाँ दो पाट में ज्यादा पिसी
नयी पीढ़ियों में सब कहाँ आजाद
आपकी प्रतिक्रिया पाकर मेरा सृजन सार्थक हुआ आदरणीया दीदी🙏🏼🙏🏼सादर
हटाएंभावपूर्ण सृजन और चिंतनपरक सृजन । अति सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंबोझ सी लगती सदा है
जवाब देंहटाएंबेटियाँ क्यों है पराई
मूक रहती और सहती
ठोकरें और मार खाई
बहुत मार्मिक रचना...
वाकई अब यह दृश्य पूरी तरह बदलना चाहिए और मांओं को इसे बदलने में आगे बढ़कर अपना योगदान देना चाहिए।
इस हृदयस्पर्शी रचना के लिए साधुवाद 🌹🙏🌹
रचना के मर्म पर सार्थक प्रतिक्रिया हेतु सहृदय आभार आदरणीया 🙏 सादर
हटाएंपूर्णतया ना सही, कुछ तो समय बदला है
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएं