पीर आँचल में समेटी
लाज की गठरी लुटी जब
पीर आँचल में समेटी
घाव तन-मन पर लिए वह
कंटकों की सेज लेटी।
देखती है स्वप्न कितने
टूटते नित काँच से जो
गात कोमल फ़ूल जैसा
जल रहा नित आँच से जो
आँख में सागर समेटे
प्यास जिसने रोज मेटी।।
कौन समझे पीर उसकी
झेलती है दंश कितने
नाम देवी के रखे पर
मान के सब झूठ सपने
साथ चलती है उपेक्षा
और खुशियाँ बंद पेटी।।
छीनते अधिकार सारे
भाग्य के बनके विधाता
नोचते हैं पंख उसके
सोच में कीचड़ समाता
कल्पना ही नाचती है
धार दुर्गा रूप बेटी।।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक
बहुत ही टन मन को झकझोर देने वाली रचना । शब्द शब्द जीवन की पीड़ा और चारों तरफ सम्पूर्ण समाज में बिखरी नारी की वास्तविक वेदना को अभिव्यक्त करती रचना । बहुत बहुत सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंरचना के मर्म को समझने के लिए सहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएंनारी के मन की पीड़ा को व्यक्त करती हुई अभूतपूर्व रचना।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीया 🙏 सादर
हटाएंसहृदय आभार आदरणीया 🙏 सादर
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएंह्रदय को स्पर्श करती हुई रचना - - सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रश्न
जवाब देंहटाएंचिन्ह अंकित करती है।
रचना के मर्म को समझने के लिए सहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
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