घिरे थे जो बादल
घिरे थे जो बादल,
वो छंटने लगे हैं।
तने थे वे ऐसे,
कि निकले न सूरज।
सूरज के तेवर से,
डरने लगे हैं।
छाए थे बादल,
बीते कितने वर्षों से।
घुटने लगा था,
घाटी का दम भी।
उजड़ती गई थी,
रौनकें वहां की।
बनके आतंक ,
बरसते थे बादल।
लहू का रंग से,
रंगे थे ये बादल।
बरसते थे ओले,
बम और गोलियों के।
कुटिल चालों से काले,
रहे थे ये बादल।
कीचड़ ही कीचड़,
हुई हर गली थी।
सुकून की कली कब,
वहां खिली थी।
चमका जो सूरज,
डरे थे ये बादल।
घाटी से अब तो,
छंटेंगे ये बादल।
खुशियों के फिर से,
बरसेंगे बादल।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक
घाटी से अब तो,
छंटेंगे ये बादल।
वो छंटने लगे हैं।
तने थे वे ऐसे,
कि निकले न सूरज।
सूरज के तेवर से,
डरने लगे हैं।
छाए थे बादल,
बीते कितने वर्षों से।
घुटने लगा था,
घाटी का दम भी।
उजड़ती गई थी,
रौनकें वहां की।
बनके आतंक ,
बरसते थे बादल।
लहू का रंग से,
रंगे थे ये बादल।
बरसते थे ओले,
बम और गोलियों के।
कुटिल चालों से काले,
रहे थे ये बादल।
कीचड़ ही कीचड़,
हुई हर गली थी।
सुकून की कली कब,
वहां खिली थी।
चमका जो सूरज,
डरे थे ये बादल।
घाटी से अब तो,
छंटेंगे ये बादल।
खुशियों के फिर से,
बरसेंगे बादल।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक
घाटी से अब तो,
छंटेंगे ये बादल।
छंट ही गये समझो मौत के ये बादल
जवाब देंहटाएंअब तो बरसेंगे केवल सावनी बादल.
शानदार समसामयिक रचना :)
सहृदय आभार आदरणीय 🙏
हटाएंसहृदय आभार सखी सादर
जवाब देंहटाएंसमसामयिक सुंदर रचना 👌
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी सादर
हटाएंअदभुत और अनुपम प्रस्तुति है आपकी
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार संजय जी,सादर
हटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति अनुराधा जी
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी,पर मैं अभिलाषा हूं,सादर
हटाएंबहुत ही सुन्दर समसामयिक सृजन...
जवाब देंहटाएंवाह !!!
सहृदय आभार सखी,सादर
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