दम तोड़ती मेंहदी

कितने सपने और अरमानों से,
हाथों में रचाके मेंहदी  । 
बेटी बनती है दुल्हन,
छोड़ बाबुल का घर,
तब पाती है साजन।
जलती है दहेज की आग,
जल जाती हैं मेंहदी।
कभी पिटती कभी सिसकती,
कभी अरमानों की राख में,
दम तोड़ती है मेंहदी।
सीमा पर चलती गोली,
खेली जाती खून की होली,
तब कितनी ही दुल्हनों की,
उजड़ जाती है मेंहदी।
छलकते जामों में,
रोज मयखानों में,
अपने आपको को,
लुटते देखती है मेंहदी।
टूटते रिश्तों में,
स्वार्थ की भट्टी में,
अंधविश्वास और रूढ़ियों में,
मर ही जाती है मेंहदी।
अनियंत्रित वाहनों से,
होती हैं दुर्घटनाएं,
बिखरते हुए लहू में,
कुचल जाती है मेंहदी।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक

टिप्पणियाँ

  1. अभिलाषा दी, इस कविता के माध्यम से नारी जीवन की व्यथाओं को बहुत ही खुबसुरती से व्यक्त किया हैं आपने।

    जवाब देंहटाएं
  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
    ५ अगस्त २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  3. कई तस्वीरों को शब्द दिए हैं आपने.
    अनुपम.

    पधारें कायाकल्प 

    जवाब देंहटाएं
  4. कितने ही तरहों के दर्द से होकर गुजरती है मेहंदी..
    बहुत सुन्दर रचना

    जवाब देंहटाएं

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