आत्मा


सुन्दर ये संसार है, सुन्दर पाया शरीर,
पंचतत्व से है बना,आत्मा का है नीड़।

वस्त्र बदलती आत्मा,रखती प्रभु से नेह।
मूढ़ मति मानव सदा, करें देह से नेह।

मद,माया,मोह में,मानव उलझा जाए।
आत्मा की करें उपेक्षा,सुख में भटका जाए।

आत्मा विरहिणी बनी,पिय-पिय करतीं जाए।
मूढ़ मति मानव सदा, अनसुनी करता जाए।

मानव इस संसार में,सदा नहीं तेरा वास।
इक दिन पंछी उड़ जाएगा,लगा प्रभु से आस।

आत्मा-परमात्मा एक हैं,कुछ दिन का है वियोग।
एक दिन हो जाएगा, दोनों का संयोग।

अभिलाषा चौहान

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