सुनसान वादियाँ

**(1)**
ये वादियाँ,
ये लहराते दरख्त,
नीले आसमां तले,
नीली आभा में ढले,
दिखते हैं मायूस,
बिखरी नीम खामोशी,
बनती है गवाह हर पल की।

ये शांत सुरम्य वातावरण,
प्रकृति का अनंत सौंदर्य,
अनिर्वचनीय, अद्वितीय,
बन गया पनाहगार,
निर्मम आतंक का।

ये सूने मकान,
ये दरोदीवार,
जीवनोल्लास से रहित,
भय से ग्रसित,
ये जन्नत !!
बन गई कैद खाना,
दुबके घरों में लोग,
हताश व निराश।

छिन गई जीवन की सरलता,
हर और दिखती विकलता,
प्रकृति में भी नहीं सहजता,
जीवन में आ गई दुरूहता।।

****(2)*****

प्रकृति की गोद में
रचा-बसा मैं
आज रोता हूँ अपनी वीरानी पर
शहरीकरण ने उजाड़ दिया मुझे
छीन लिए मुझसे मेरे अपने
जो यहाँ पले-बढ़े वे बन गए सपने
नहीं गूंजती यहाँ खिलखिलाहट
नहीं होती आने की आहट
उजड़ा हुआ मैं अकेला
क्या-क्या न मैंने झेला
ये दरख्त ये वादियाँ
गवाह हैं मेरे दुख की
बीते हुए सुख की
नीलाभ नभ सी छाई शून्यता
मैं अकेलेपन को ताकता
किसे भाता है गांव
इन दरख्तों की छांव
अब न मनती दीवाली होली
बस सब है खाली-खाली
बचे इक्के-दुक्के लोग
मेरी तरह खामोशी रहे भोग।

अभिलाषा चौहान

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