चलों जी लें कुछ पल साथ में हम
वो दिन भी बड़े सुहाने थे,
हम दुनिया से बेगाने थे।
बस प्यार के हम परवाने थे,
कुछ खोए-खोए से रहते थे।
वो झील सी नीली आंखों में,
मैं भूला-भूला रहता था।
वो लहराते काले बालों में,
चांद सा मुखड़ा दिखता था।
बीत गया वो समय कहां,
प्यार भी खो गया न जाने कहां!
आंखों चढ़ गया अब चश्मा है,
बालों की सफेदी कुछ कहती यहां!
जीवन की अंतिम सांझ है ये,
दीपक भी अब बुझने को है।
जरा देना तुम अपना हाथ जरा,
महसूस करूं गर्माहट जरा।
तुम मेरे कांधे पर सर रख दो,
मैं तुमको फिर महसूस करूं।
बस प्रेम का जीवन जीते हैं,
अब थोड़ा रूमानी होते हैं।
जिम्मेदारी सब बीत गई
बुढ़ापे की खुमारी है छाई
चलो जी लें कुछ पल साथ में हम
रूमानियत से भरे हों अब हम-तुम।
अब कोई चिंता न कोई फ़िकर,
अब जीना है हमको जी भर।
अब प्यार ही प्यार हो हमारे बीच,
अब रूमानी बने जीवन का हर पल।
अभिलाषा चौहान
हम दुनिया से बेगाने थे।
बस प्यार के हम परवाने थे,
कुछ खोए-खोए से रहते थे।
वो झील सी नीली आंखों में,
मैं भूला-भूला रहता था।
वो लहराते काले बालों में,
चांद सा मुखड़ा दिखता था।
बीत गया वो समय कहां,
प्यार भी खो गया न जाने कहां!
आंखों चढ़ गया अब चश्मा है,
बालों की सफेदी कुछ कहती यहां!
जीवन की अंतिम सांझ है ये,
दीपक भी अब बुझने को है।
जरा देना तुम अपना हाथ जरा,
महसूस करूं गर्माहट जरा।
तुम मेरे कांधे पर सर रख दो,
मैं तुमको फिर महसूस करूं।
बस प्रेम का जीवन जीते हैं,
अब थोड़ा रूमानी होते हैं।
जिम्मेदारी सब बीत गई
बुढ़ापे की खुमारी है छाई
चलो जी लें कुछ पल साथ में हम
रूमानियत से भरे हों अब हम-तुम।
अब कोई चिंता न कोई फ़िकर,
अब जीना है हमको जी भर।
अब प्यार ही प्यार हो हमारे बीच,
अब रूमानी बने जीवन का हर पल।
अभिलाषा चौहान
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 08 सितंबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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