बचपन के दिन
बचपन के दिन बड़े सुहाने थे,
हम गम से अनजाने थे।
छल-छंदों के न ताने-बाने थे,
खेल-कूद के हम दीवाने थे।
वो गलियां, वो घर-आंगन,
जिनमें में बीता मेरा बचपन।
खुशियों से भरे थे पल-छिन
वो पल कितने सुहाने थे।
वो कच्ची अमियां,खट्टी इमली,
बागों में रोज पकड़ना तितली।
तब हंसी नहीं थी नकली,
खुशियों के हम परवाने थे।
भरा-पूरा था परिवार वहां,
सब खूब लुटाते प्यार वहां।
दादा-दादी, नाना-नानी,
किस्से कितने ही सुहाने थे।
वो सखियां वो हमजोली,
जैसे मस्तानों की टोली।
वो गुड्डे-गुड़ियां,वो झूले
अनगिन खेल सुहाने थे।
वो विद्यालय में आना-जाना,
गुरू जी से नित सजा पाना।
फिर अच्छे अंक भी ले आना,
वे सपने कितने सुहाने थे।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
हम गम से अनजाने थे।
छल-छंदों के न ताने-बाने थे,
खेल-कूद के हम दीवाने थे।
वो गलियां, वो घर-आंगन,
जिनमें में बीता मेरा बचपन।
खुशियों से भरे थे पल-छिन
वो पल कितने सुहाने थे।
वो कच्ची अमियां,खट्टी इमली,
बागों में रोज पकड़ना तितली।
तब हंसी नहीं थी नकली,
खुशियों के हम परवाने थे।
भरा-पूरा था परिवार वहां,
सब खूब लुटाते प्यार वहां।
दादा-दादी, नाना-नानी,
किस्से कितने ही सुहाने थे।
वो सखियां वो हमजोली,
जैसे मस्तानों की टोली।
वो गुड्डे-गुड़ियां,वो झूले
अनगिन खेल सुहाने थे।
वो विद्यालय में आना-जाना,
गुरू जी से नित सजा पाना।
फिर अच्छे अंक भी ले आना,
वे सपने कितने सुहाने थे।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
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