जैसे सब कुछ डोल रहा था
नेत्र प्रवाहित नदिया अविरल
नेह हृदय कुछ तोल रहा था
तिनका-तिनका दुख में मेरे
जैसे सब कुछ डोल रहा था।
अम्बर पर बदली छाई थी
दुख की गठरी लादे भागे
नयनों से सावन बरसे था
विरह आग ने गोले दागे
प्यासा-प्यासा जीवन मेरा
चातक बन कर बोल रहा था।
कस्तूरी को वन-वन ढूँढे,
पागल मृग सा मेरा मन था।
मृगतृष्णा में उलझा-उलझा
सड़ता गलता मेरा तन था
खोया-खोया जीवन मेरा
जीवन-धन को ढूँढ रहा था।।
धरती से लेकर अंबर तक
सबको अपना मान लिया था
सच्चाई से मुख मोड़ा था
दुख को गठरी बाँध लिया था,
थोड़ा-थोड़ा सुख पाया वह
जीवन में विष घोल रहा था।।
अभिलाषा चौहान
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, अभिलाषा दी।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी 🙏🌹 सादर
हटाएंवाह! बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏🌹 सादर
हटाएंनेह हृदय कुछ तोल रहा था
जवाब देंहटाएंतिनका-तिनका दुख में मेरे
जैसे सब कुछ डोल रहा था।
.... पंक्तियाँ जो प्रभावित किए बिना न रह सकी।।।।।
हार्दिक शुभकामनाएँ। ।।।
सहृदय आभार आदरणीय 🙏🙏 सादर
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏🙏 सादर
हटाएंबहुत सुन्दर गीत।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏🙏 सादर
हटाएंसुंदर अभिव्यक्ति सखी,सादर नमन
जवाब देंहटाएंकस्तूरी को वन-वन ढूँढे,
जवाब देंहटाएंपागल मृग सा मेरा मन था।
मृगतृष्णा में उलझा-उलझा
सड़ता गलता मेरा तन था
बस इसीमें मन उलझा रहता ... सुन्दर रचना ..
सहृदय आभार आदरणीया 🙏 सादर
हटाएंसुंदर सृजन🌻👌
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏🙏 सादर
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