काल कठिन है क्रूर


कैसी आई आपदा

अपने होते दूर

बैठ अकेला सोचता

कितने है मजबूर।


ढेर शवों के लग रहे

विवश हुआ विज्ञान

कैसे रोकें त्रासदी

टूटा सब अभिमान

सन्नाटा हिय चीरता

सपने सारे चूर।।


जीवन ऐसा अब लगे

जैसे कारागार

छाया अँधियारा घना

कैसे होंगे पार

छुपकर बैठे हैं कहीं

बनते थे जो शूर।।


चिंतन करते मैं थका

किसके थे ये पाप

जिसका दंड भोग रहे

कितने ही निष्पाप

साहस पल-पल टूटता

काल कठिन है क्रूर।।



अभिलाषा चौहान












टिप्पणियाँ

  1. सच , न जाने किसके और कौन से पाप हैं । मर्मस्पर्शी रचना ।

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  2. छुपकर बैठे हैं कहीं बनते थे जो शूर। आपकी इस कविता का एक-एक शब्द कठोर सत्य है। अभिनंदन अभिलाषा जी।

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