हिंदी भाषा और अशुद्धिकरण की समस्या
हिन्दी भाषा का मानक रूप आज अशुद्ध शब्दों के प्रयोग के कारण लुप्त सा होता जा
रहा है।यह चिंतनीय विषय है।हिंदी विस्तृत भू-भाग की भाषा है। क्षेत्रीय बोलियों के संपर्क में आने से शुद्ध शब्दों का स्वरूप बदल जाता है।
अहिंदी भाषियों के द्वारा भी हिंदी का प्रयोग संपर्क भाषा के रूप में किया जाता हैजिसके कारण शब्द अपना मूल रूप खो देते हैं। इसका कारण क्या है?
'उच्चारण' इस समस्या का मूल कारण है।
हम जैसा बोलते हैं, वैसा ही लिखते हैं।बिना ये जाने कि मात्राओं के हेर-फेर से शब्द का स्वरूप तो विकृत होता ही है ,उसका अर्थ
भी बाधित हो जाता है।ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या किया जाए ?कैसे हिंदी भाषा को अशुद्धिकरण से दूर रखा जाए?कैसे शब्दों
के शुद्ध रूप को व्यवहार में लाया जाए ।
इसके लिए" व्याकरण"का व्यावहारिक ज्ञान होना बहुत आवश्यक है।आज यह समस्या
व्यापक हो चुकी है।पहले समाचार पत्रों की
भाषा या आकाशवाणी -दूरदर्शन की भाषा को शुद्ध भाषा माना जाता था ,लेकिन बढ़ते
व्यवसायीकरण के कारण वहाँ भी भाषा उपेक्षा की पात्र बन गई है।मुद्रण संस्थानों में
भी भाषा की शुद्धता पर विशेष ध्यान नहीं
दिया जाता ,इसलिए मुद्रित सामग्रियों में भी
त्रुटियाँ स्पष्ट दिखाई देती हैं,साथ ही शिक्षण संस्थानों में भाषा की शुद्धता पर विशेष ध्यान न दिए जाने के कारण छात्रों में भी अशुद्ध लेखन की प्रवृति बढ़ रही है। इसका दोष हम
किसके माथे मढ़ें? क्या दोषारोपण करने से
इस समस्या से निजात मिल जाएगी??कदापि नहीं।बल्कि हम सभी प्रतिबद्धता के
साथ अपनी लेखन शैली में अशुद्ध शब्दों के
प्रयोग से बचें तो शायद कुछ सुधार संभव है।
इन दिनों सोशल मीडिया पर हिंदी साहित्यिक रचनाओं की बाढ़ सी आ गई है।जो एक तरह से हिंदी भाषा और साहित्य के पुनरुत्थान का कार्य कर रही है ,बस कमी यही है "भाषा का अशुद्धिकरण"इस पर वहाँ भी विशेष ध्यान नहीं दिया जा रहा है।यह मेरी दृष्टि मेंअनुचित है।अगर कोई व्यक्ति लेखन कार्य से जुड़ा है और उसको पढ़ने वालों की संख्या लाखों में हो तथा उसकी भाषा में अशुद्ध शब्दों का प्रयोग हो तो निस्संदेह वह समाज को ग़लत संदेश दे रहा है।हम सबका उद्देश्य यही होना चाहिए कि हिंदी भाषा का साहित्य में प्रयोग उसके मानक रूप में हो ,ताकि वह खिचड़ी भाषा न बनें।हिंदी भाषा में तत्सम, तद्भव ,देशज और विदेशज शब्दों की भरमार है।हर शब्द का अपना सौंदर्य होता है।यदि शब्द को अपने हिसाब से तोड़-मरोड़ कर , मात्राओं में हेर-फेर कर प्रस्तुत किया जाताहै तो शब्द का मूल सौंदर्य नष्ट हो जाता है।हमारी कोशिश यही होनी चाहिए कि शब्द का मूल रूप नष्ट न हो,हम किसी भी शब्द को प्रयोग में लें पर अशुद्धि के साथ नहीं।तभी हम सच्चे मन से मातृभाषा हिंदी के स्वरूप को बचा कर रख पायेंगे।
क्रमशः
अभिलाषा चौहान
रहा है।यह चिंतनीय विषय है।हिंदी विस्तृत भू-भाग की भाषा है। क्षेत्रीय बोलियों के संपर्क में आने से शुद्ध शब्दों का स्वरूप बदल जाता है।
अहिंदी भाषियों के द्वारा भी हिंदी का प्रयोग संपर्क भाषा के रूप में किया जाता हैजिसके कारण शब्द अपना मूल रूप खो देते हैं। इसका कारण क्या है?
'उच्चारण' इस समस्या का मूल कारण है।
हम जैसा बोलते हैं, वैसा ही लिखते हैं।बिना ये जाने कि मात्राओं के हेर-फेर से शब्द का स्वरूप तो विकृत होता ही है ,उसका अर्थ
भी बाधित हो जाता है।ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या किया जाए ?कैसे हिंदी भाषा को अशुद्धिकरण से दूर रखा जाए?कैसे शब्दों
के शुद्ध रूप को व्यवहार में लाया जाए ।
इसके लिए" व्याकरण"का व्यावहारिक ज्ञान होना बहुत आवश्यक है।आज यह समस्या
व्यापक हो चुकी है।पहले समाचार पत्रों की
भाषा या आकाशवाणी -दूरदर्शन की भाषा को शुद्ध भाषा माना जाता था ,लेकिन बढ़ते
व्यवसायीकरण के कारण वहाँ भी भाषा उपेक्षा की पात्र बन गई है।मुद्रण संस्थानों में
भी भाषा की शुद्धता पर विशेष ध्यान नहीं
दिया जाता ,इसलिए मुद्रित सामग्रियों में भी
त्रुटियाँ स्पष्ट दिखाई देती हैं,साथ ही शिक्षण संस्थानों में भाषा की शुद्धता पर विशेष ध्यान न दिए जाने के कारण छात्रों में भी अशुद्ध लेखन की प्रवृति बढ़ रही है। इसका दोष हम
किसके माथे मढ़ें? क्या दोषारोपण करने से
इस समस्या से निजात मिल जाएगी??कदापि नहीं।बल्कि हम सभी प्रतिबद्धता के
साथ अपनी लेखन शैली में अशुद्ध शब्दों के
प्रयोग से बचें तो शायद कुछ सुधार संभव है।
इन दिनों सोशल मीडिया पर हिंदी साहित्यिक रचनाओं की बाढ़ सी आ गई है।जो एक तरह से हिंदी भाषा और साहित्य के पुनरुत्थान का कार्य कर रही है ,बस कमी यही है "भाषा का अशुद्धिकरण"इस पर वहाँ भी विशेष ध्यान नहीं दिया जा रहा है।यह मेरी दृष्टि मेंअनुचित है।अगर कोई व्यक्ति लेखन कार्य से जुड़ा है और उसको पढ़ने वालों की संख्या लाखों में हो तथा उसकी भाषा में अशुद्ध शब्दों का प्रयोग हो तो निस्संदेह वह समाज को ग़लत संदेश दे रहा है।हम सबका उद्देश्य यही होना चाहिए कि हिंदी भाषा का साहित्य में प्रयोग उसके मानक रूप में हो ,ताकि वह खिचड़ी भाषा न बनें।हिंदी भाषा में तत्सम, तद्भव ,देशज और विदेशज शब्दों की भरमार है।हर शब्द का अपना सौंदर्य होता है।यदि शब्द को अपने हिसाब से तोड़-मरोड़ कर , मात्राओं में हेर-फेर कर प्रस्तुत किया जाताहै तो शब्द का मूल सौंदर्य नष्ट हो जाता है।हमारी कोशिश यही होनी चाहिए कि शब्द का मूल रूप नष्ट न हो,हम किसी भी शब्द को प्रयोग में लें पर अशुद्धि के साथ नहीं।तभी हम सच्चे मन से मातृभाषा हिंदी के स्वरूप को बचा कर रख पायेंगे।
क्रमशः
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक
बहुत ही सारगर्भित लेख लिखा आपने हमारी मातृभाषा होते हुए भी हिंदी की स्थिति बहुत दयनीय है खासकर अभी के समय में हिंदी लिखने में इतनी अशुद्धियां लोग करते हैं कि कहीं बाहर अशुद्धियों की वजह से जो शब्द जो पंक्तियां होनी चाहिए उसका स्वरूप बदल जाता है.. तकलीफ तो होती है आजकल के बच्चे और बहुत सारे अभिभावक हिंदी को तुच्छ समझते हैं अगर उनका बच्चा अंग्रेजी में बात करें अंग्रेजी में सोचे तो यह उनके लिए बहुत बड़े स्टैंडर्ड के बाद होती है लेकिन अगर वही बच्चा कुछ हिंदी में कहना चाहे तो उसे डांट कर चुप करा देते हैं.. और जहां भी हिंदी की पढ़ाई होती है वहां पर सही तरीके से अशुद्धियों पर ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि हमारी हिंदी का मान सम्मान बना रहे इतनी जबरदस्त लेख के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद अभिलाषा जी बहुत ही उपयोगी है यह लेख... अभी बस जाते-जाते आपकी प्रोफाइल पर एक नजर पड़ गई और मुझे यह जानकर बेहद खुशी हुई कि आपने हिंदी में एम .फिल किया है,
जवाब देंहटाएंइसलिए आपकी हिंदी इतनी जबरदस्त है यूं ही लिखा कीजिएगा धन्यवाद
सहृदय आभार सखी ,अभी तो मैं पूर्ण रूप से अपनी बात भी नहीं कह पाई और आपकी त्वरित प्रतिक्रिया प्राप्त हुई।यह मेरा सपना है कि मैं भाषा के शुद्धिकरण पर लोगों का ध्यान आकृष्ट कर सकूँ।केवल लिखना पर्याप्त नहीं होता।कैसे लिखा है
हटाएंयह भी ध्यान देने की बात है।जब मैं लोगों की रचनाओं में अशुद्ध शब्दों का प्रयोग देखती हूँ तो
बहुत दुख होता है। धन्यवाद सखी 🌹🌹
अहिन्दीभाषियों ( कोलकाता और कलिम्पोंग ) में रहने का प्रतिकूल प्रभाव मेरी लेखनी पर भी पड़ा है।
जवाब देंहटाएंस्वयं भी हिन्दी की उपेक्षा की और गणित के सवालों में उलझा रहा।
और जब पत्रकारिता में आया तब जिस भाषा के सहयोग से दो वक्त की रोटी मिल रही है, वह हिन्दी ही है।
जिसे मैं ठीक से लिखने में असमर्थ हूँँ ।
यह ग्लानि मुझे सदैव रहती है दी,
यद्यपि शुद्ध हिन्दी लिखने का प्रयत्न निश्चित ही करता हूँ।
आभार भाई त्वरित प्रतिक्रिया हेतु। मैं जहाँ तक संभव हो पाता है,आपके लेख पढ़ती हूँ ,आपकी भाषा में मुझे ऐसी त्रुटियाँ नहीं दिखाई दी,जिसके लिए आप ग्लानि अनुभव करें। लेकिन कई जगह में पाती हूँ कि लोग इ,ई या उ,ऊ की मात्रा का ही सही ढंग से प्रयोग नहीं करते फिर और शब्दों का कहना ही क्या?बस इसी भ्रांति को मिटाने का
हटाएंप्रयास करने की कोशिश करना चाहती हूँ🌹🌹🙏🙏
जी दी
हटाएंबहुत सुंदर और सार्थक लेख 👌
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार 🌹🙏
हटाएंसार्थक चर्चा..
जवाब देंहटाएंलाज़वाब लेख लिखा है।
जवाब देंहटाएंहिंदी की अशुद्धियां मेरे लेखन में भी है उसका कारण आपने बताया वही है लेकिन दोस्तो के सहयोग से हिंदी की अशुद्धियां ठीक कर लेता हूँ और आगे से ध्यान रखता हूँ कि दुबारा वही शब्द गलत ना लिखूं।
मेरा मूल सब्जेक्ट अंग्रेजी है इसलिए हिंदी व्याकरण सीखना मेरे लिए मुश्किल हो गया है।
सारपूर्ण बातें करने का आभार।
नई पोस्ट पर आपका स्वागत है- लोकतंत्र
बहुत सारगर्भित लेख है आपका । हिन्दी लेखन पर आपकी प्रतिबद्धता सराहनीय हैं,
जवाब देंहटाएंहिन्दी के विकास के लिए भी ये अच्छी पहल है।
आप सच कह रही हैं हर जगह अशुद्धी की समस्या मुंह उठाए खड़ी है ,और उसका प्रमुख कारण उच्चारण की अशुद्धता है हम जो बोलते लिख देते हैं उ,ऊ, इ,ई में भी और स ,श में ये समस्या देखने को मिलती है ।
मेरे स्वयं के लेखन में बहुत अशुद्धता रहती है ,इसका कारण मैं जो समझती हूं , उच्चारण दोष, लिखने का अभ्यास न होना, अचानक सिर्फ भावों को व्यक्त करने के लिए लेखन क्षेत्र में आना , शुद्धता से ज्यादा भावाभिव्यक्ति पर दृष्टि ,स्वांत सुखांत लिखना, व्याकरण का ज्ञान न होना , और सबसे ज्यादा लापरवाही ।
और भी बहुत से कारण हो सकते हैं ,
फिर भी एक बात कहूंगी कि लेखन में शुद्धता न हो तो स्वयं को साहित्यिक दावा करने वाले विषयों से दूर रखना ।
अपने लेखन में सुधार करने की प्रतिबद्धता रखना।
लेखन के इतने मंच आज सब को मिल रहे हैं,अपना भाव व्यक्त करने की स्वतंत्रता से तो कैसे किसी को रोक सकते हैं।
बाकी नये-नये लेखन में आने वालों को आपका लेख बहुत लाभ पहुंचा सकता है अगर वो चाहे ।
मैं भी कोशिश में हूं कि अपना परिमार्जन कर सकूं।
पुनः आपके शानदार लेख के लिए बधाई और शुभकामनाएं।
बहुत ही शानदार लेख .....आप की बात से पूर्ण सहमत। साहित्यकार होने के नाते आपने ना सिर्फ इसकी गंभीरता को समझा बल्कि लेख के माध्यम से लोगों को जगाने का सराहनीय प्रयास भी किया यह सच में बहुत ही प्रसंसनीय और प्रेरणादायक है। इस तरह के विषय आते रहेंगे तो आज नही तो कल साहित्य जगत में नई क्रांति अवश्य आएगी। आपके लेख की जितनी भी सराहना करें कम है ....इसी तरह लिखते रहें और अन्य मार्गदर्शन करते रहें यही अभिलाषा 🙏 बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं 💐💐💐 माँ शारदा की कृपा आपकी लेखनी को नई धार दे और आपका प्रयास भरपूर सफल हो 🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंसार्थक चर्चा
जवाब देंहटाएंआदरणीया अभिलाषा जी आपने प्रत्येक रचनाकार के दर्द को बहुत गहनता से समझा है। लिखना और उच्चारण दोनों में ही अशुद्धि का ऐसा घोल मिल चुका है, जिसे सहजता से सुधार पाना किसी के वश में नहीं है। इस अशुद्धिकरण का इलाज वैसे तो कठिन, दुर्लभ और दुर्गम है परंतु असंभव नहीं है। मात्र जागरूक होने की आवश्यकता है और सबको स्वयं की जिम्मेदारी लेने की आवश्यकता है। पर जिम्मेदारी ले कौन सबसे विचित्र समस्या है, अब यदि समाज से एक समूह आगे आये भी तो मार्गदर्शन का आभाव भी खलता है। ऐसे में दोष किसका ?
जवाब देंहटाएंबहुत ही गंभीर विषय है जिस पर आपका आलेख खुल कर बोला है। अत्यंत चिंतनशील विषय पर सजगता से कलम चली है आपकी जो समाधान खोज निकालने के लिए प्रयासरत है अग्रिम बधाई एवं शुभकामनाएं