हम सब भूल जाएँगे!!

उठा के जो तिरंगे को,
कसम ये रोज खाते हैं।
झुका के शीश अपना जो,
वतन पे जान लुटाते हैं।
रहे आजाद ये गणतंत्र,
तिरंगा यूं ही लहराए।
न भूलो उन शहीदों को,
जिन्होंने प्राण गँवाए।
बदल कर भी नहीं बदला
बहुत कुछ देश में अपने,
बना गणतंत्र ये अपना
कहाँ पूरे हुए सपने।
लगी जो दीमकें जड़ में,
करें हैं खोखला इसको
पिसा घुन की तरह कोई,
पता चला यहाँ किसको?
यहाँ वादे हैं,दिलासे हैं,
इरादों का पता किसको
छिपी पर्दों में बातें हैं,
चली हैं वो पता किसको?
वो फहराता तिरंगा भी,
मौन हो सोचता हरदम।
हिले बुनियादी ढाँचे में,
घुटे गणतंत्र का अब दम।
छली जाती है मानवता,
सिसकती सहमी सी बैठी
धर्म-जाति के फंदे में,
आग आरक्षण की पैठी।
असमता की लकीरों में,
बना है न्याय भी अंधा।
पनपता है रसूखों से,
अपराध का फंदा।
मना गणतंत्र का ये पर्व,
निभा कर्तव्य पाएँगे।
जो बीता आज का ये दिन
हम सब भूल जाएँगे।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक





टिप्पणियाँ

  1. देते हैं भगवान को धोखा, इनसां को क्या छोड़ेंगे
    कसमे वादे प्यार वफ़ा सब, बातें हैं बातों का क्या
    आपकी इस सार्थक और समसामयिक रचना पर , यह गीत जुबां पर आ गयी।
    प्रणाम दी

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय आभार भाई,आपकी त्वरित प्रतिक्रिया से
      मन गदगद हो गया।आपका लेख पढ़ा।सच में
      सब कुछ कितना अर्थहीन लगता है।

      हटाएं
  2. धर्म-जाति के फंदे में,
    आग आरक्षण की पैठी।...बिल्कुल सच कहा

    जवाब देंहटाएं

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