वक्त की बाज़ीगरी

वक्त फिसलता हाथों से
रेत के समान
पल-पल लेता है ,
वह इम्हितान
खेल चलता है
बंदर और मदारी का
हम नाचते हैं
और वह नचाता है
कभी उसका पलड़ा
होता है भारी
कभी हमारी किस्मत
ने बाजी मारी
जो मिला वो हमारा था
नसीब
कौन रहता है भला सदा
किसी के करीब
भागती हुई इस जिंदगी को
रोक न सके
जिंदगी की के साथ कदम
मिला दौड़ न सके
हम समेटते रहे कुछ सुख
के पल
दुख तो बन साथी सदा
रहा हर पल
तोड़ना चाहते थे आसमान
के तारे
ख्बाव बहुत ऊंचे थे हमारे
वक्त ने हकीकत का आईना
हमें दिखाया
हमने वक्त को कभी कहां
हरा पाया।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित


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