अभिशप्त वैदेही
मौन थी सीता,
हतप्रभ -सी !
व्यथित,व्याकुल,
मन उठा झंझावात !
हे नाथ!मेरा परित्याग !!
क्या था ?मेरा अपराध !!
क्यों अभिशप्त हैं जीवन मेरा?
क्यों वन ही हो मेरा बसेरा??
इस निर्जन वन में अकेली!
नियति मुझे कहां ले चली!
मैंने तो आपको सर्वस्व माना,
आपने ही छीना मेरा ठिकाना।
मैंने अग्नि-परीक्षा तो दी थी,
मिलन की घड़ी ये छोटी बड़ी थी।
हा,नाथ गर्भिणी को यूं वन में भेजा !
फटा क्यों नहीं आपका कलेजा ??
किसके अभिशाप का फल भोगती हूं !
निरपराध होकर मैं दंड भोगती हूं!!
प्रजा का हित सर्वोपरि ,मैंने माना,
परित्याग मेरा!क्यों ये मैंने न जाना।
छाया थी नाथ मैं हर पल तुम्हारी,
कैसे फिरूं वन-वन,अब मैं हारी।
मिलन का अब न है कोई ठिकाना,
जब आपने मेरा मन ही न जाना।
मैं अब एक-पल भी जीना न चाहूं,
मरना भी चाहूं,मर भी मैं न पाऊं..!!
बिलखती वैदेही,अश्रुधार प्रबल थी,
अंतर्मन में अंतर्द्वंदों की हलचल मची थी।
धरतीसुता का दुख देख प्रकृति दुखी थी
निस्तब्धता छाई ,प्रकृति मौन खड़ी थी
एक अबला का रूदन गूंजता था,
अंबर भी मौन हो सब देखता था
चढ़ती है बलिवेदी हमेशा ही नारी !!
सीता, यशोधरा, उर्मिला या अन्य दुखारी?
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
हतप्रभ -सी !
व्यथित,व्याकुल,
मन उठा झंझावात !
हे नाथ!मेरा परित्याग !!
क्या था ?मेरा अपराध !!
क्यों अभिशप्त हैं जीवन मेरा?
क्यों वन ही हो मेरा बसेरा??
इस निर्जन वन में अकेली!
नियति मुझे कहां ले चली!
मैंने तो आपको सर्वस्व माना,
आपने ही छीना मेरा ठिकाना।
मैंने अग्नि-परीक्षा तो दी थी,
मिलन की घड़ी ये छोटी बड़ी थी।
हा,नाथ गर्भिणी को यूं वन में भेजा !
फटा क्यों नहीं आपका कलेजा ??
किसके अभिशाप का फल भोगती हूं !
निरपराध होकर मैं दंड भोगती हूं!!
प्रजा का हित सर्वोपरि ,मैंने माना,
परित्याग मेरा!क्यों ये मैंने न जाना।
छाया थी नाथ मैं हर पल तुम्हारी,
कैसे फिरूं वन-वन,अब मैं हारी।
मिलन का अब न है कोई ठिकाना,
जब आपने मेरा मन ही न जाना।
मैं अब एक-पल भी जीना न चाहूं,
मरना भी चाहूं,मर भी मैं न पाऊं..!!
बिलखती वैदेही,अश्रुधार प्रबल थी,
अंतर्मन में अंतर्द्वंदों की हलचल मची थी।
धरतीसुता का दुख देख प्रकृति दुखी थी
निस्तब्धता छाई ,प्रकृति मौन खड़ी थी
एक अबला का रूदन गूंजता था,
अंबर भी मौन हो सब देखता था
चढ़ती है बलिवेदी हमेशा ही नारी !!
सीता, यशोधरा, उर्मिला या अन्य दुखारी?
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
अभिलाषा जी बहुत सुंदर चित्रण
जवाब देंहटाएंनारी सदा से सहनशक्ति की मूर्त है ।
चढ़ती है बलिवेदी हमेशा ही नारी !!
जवाब देंहटाएंसीता, यशोधरा, उर्मिला या अन्य दुखारी?
इस यक्ष प्रश्न का उत्तर स्वयं इन्हें ही ढ़ूंढना होगा और प्रतिकार भी करना होगा, एक का मौन अनेकों के लिये वह अग्निपथ बन जाएगा, जिस मार्ग पर औरों को भी विवश हो चलना होगा !
बहुत ही भावपूर्ण शब्द चित्र, प्रणाम।
जी, आदरणीय 🙏 सहृदय आभार
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत ही भावपूर्ण रचना प्रिय अभिलाषा जी | सीता माँ की वेदना और उनकी तात्कालिक मनः स्थिति को बहुत ही सार्थक शब्दों में लिखा आपने | श्री रामकी कर्तव्य गत विवशताओं के बावजूद सीता माँ को गर्भावस्था में धोखे से वन में भिजवाने का उनका निर्णय उन्हें मानवता के कटघरे में हमेशा दोषी सिद्ध करेगा | उनसे ये सवाल पूछे जायेगें कि क्यों मर्यादा पुरुषोत्तम एक पति के रूप में इतने निर्मम और निष्ठुर बन गये थे | चिन्तनपरक के रचना के लिए आभार सखी |
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार रेणु बहन
हटाएंआपका कथन पूर्णतः सत्य है क्यों कर्त्तव्य-कर्मों
के निर्वाह में पत्नी को बांधा माना जाता रहा?
ये प्रश्न सीता , यशोधरा ही नहीं वर्तमान में भी
कर्त्तव्य परायण स्त्रियों को इसका दंड भोगना ही पड़ता है।स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए सहृदय आभार।
फटा क्यों नहीं आपका कलेजा ??
जवाब देंहटाएंकिसके अभिशाप का फल भोगती हूं !
निरपराध होकर मैं दंड भोगती हूं!!...मार्मिक चित्रण सखी
बहुत सुन्दर
सादर
सहृदय आभार सखी,सादर
हटाएंबहुत सुंदर प्रिय सखी !!सीता माता के मन की वेदना का हृदयस्पर्शी चित्रण ..!
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी,सादर
हटाएंबहुत संवेदनशीलता लिये मां सीता का विलाप सच हृदय स्पर्शी अभिलाषा जी ।
जवाब देंहटाएंऔर फिर फिर वही सवाल सदियों से कोच रहे हैं।
सुंदर अभिव्यक्ति ।
सहृदय आभार सखी,सादर
हटाएंबहुत ही हृदयस्पर्शी सुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएंचढ़ती है बलिवेदी हमेशा ही नारी !!
सीता, यशोधरा, उर्मिला या अन्य दुखारी?
सहृदय आभार सखी,सादर
हटाएंअंबर भी मौन हो सब देखता था
जवाब देंहटाएंचढ़ती है बलिवेदी हमेशा ही नारी !!
सीता, यशोधरा, उर्मिला या अन्य दुखारी?
नारी मन की मार्मिक अभिव्यक्ति सादर स्नेह सखी
बेहद मार्मिक रचना आदरणीया
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार रवींद्र जी
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