जल रहा था 🌒 चांद



जल रहा था चांद,
थी चांदनी दहक रही।
प्रकृति थी मौन,
वेदना तड़प रही।
खून में उबाल था,
बाजुएं फड़क रहीं।
हरकतें नापाक थीं,
आवाजें उठ रही।
खून का बदला खून,
पुकार ये मच रही।
माहौल था गमगीन,
आंखें थीं बरस रहीं।
खो दिए थे लाल,
माताएं तड़प रहीं।
शहीदों की पत्नियां,
सिंहनी थीं गरज रहीं।
‌बलिदान न हो व्यर्थ,
मेरे सुहाग का।
क्यों हो न अंत,
अब आतंकवाद का।
देखना और सोचना,
अब बहुत हो चुका।
फैसले का वक्त ,
अब निकट आ चुका।
रक्त की बहीं बूंद,
अब न व्यर्थ जाएंगी।
हर बूंद तूफान ,
बनकर कहर भाएगी।
भारतवासियों को,
कम मत आंकना।
वीरता पर आ गए,
पड़ेगी बगलें झांकना।
अपनी पर आ गए,
बहुत कुछ कर जाएंगे।
जो तुम न सोच सको,
ऐसा करके दिखाएंगे।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित

टिप्पणियाँ



  1. आपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 13 फरवरी 2019 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    उत्तर
    1. सहृदय आभार पम्मी जी, व्यस्तता के चलते आपकी सूचना पर त्वरित प्रतिक्रिया न दे सकी।

      हटाएं
  2. बहुत सुन्दर ...प्रेरक प्रस्तुति...

    जवाब देंहटाएं

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