कैसा है ये ज़हर...!?

जहर जुबां का ढाता कहर,
जिंदगी होती दोजख और बेजार।
टूटते दिल शब्दों की मार से,
तीर और तलवार से भी,
तेज होती इनकी धार
पनपतीे विष की अमर बेल
सोखती जीवन का रस,
सूख जाता प्रेम का वृक्ष।
संबंधों में घुलता जहर,
इंसान बेमौत जाता है मर।
दिल पर लगे घाव बनते नासूर,
जिंदगी होती जाती है बेनूर।
अपनी ही लाश को,
ढोता है आदमी..!
रहती सदा उसकी,
आंखों में नमी ...!
सर्प भी शर्मसार हैं,
इंसान के विष से..!
सुनते हैं जब,
ऐसे जहरीले किस्से।
उगलता जहर इंसान!
वातावरण बनता है जहरीला।
इंसानियत का मुंह भी,
पड़ जाता है पीला।
घृणा,द्वेष,ईर्ष्या निंदा का ,
जहर उगलता।
दिल उसका पत्थर का
जो नहीं पिघलता।
प्रकृति भी इंसान के,
जहर से न बची।
संस्कृति भी बेचारी ,
घुट-घुट के मर रही।
कैसा जहर ये ...!
जिसका न तोड़ है।
काल से लगाई ...!
इसने होड़ है।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित

टिप्पणियाँ

  1. सत्य कहा है। शब्दों से बढ़ कर कोई अमृत या विष नहीं। बहुत सुंदर अभिव्यक्ति...

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  2. आपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 13 फरवरी 2019 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति.. वाह्ह्ह👌

    जवाब देंहटाएं

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