"मौन वीणा"

वीणा साधक के बिना बेकार है।जब
तक साधक वीणा के तार नहीं छेड़ता
तब तकवीणा का होना न होना
बराबर है।
यहां वीणा'शरीर'और साधक'आत्मा'या कहें'
'परमात्मा का प्रतीक है।महाकवि अज्ञेय ने 'असाध्य वीणा' की रचना की है।बस
 उससे ही प्रभावित होकर छोटी सी
 कोशिश है मेरी।यह उन्हें ही समर्पित है।
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वीणा थी मौन,
साधक था मौन।
दोनों में न था संगम,
साधक ने न छेड़े तार,
वीणा निर्जीव पड़ी बेकार।
वीणा चैतन्य तभी होगी,
साधक जब करे उसे अंगीकार।
साधक ने वीणा को देखा,
फिर उसको जांचा परखा,
कस दिए उसने वीणा के तार।
स्पर्श साधक का पाकर,
वीणा थोड़ी चैतन्य हुई,
अस्तित्व का उसको भान हुआ,
जीवन-उद्देश्य का ज्ञान हुआ।
साधक ही सुन्दर साकार,
उससे ही वीणा का आकार।
मौन संलाप करें वीणा,
साधक की उंगलियां थी प्रवीणा।
वीणा ने अहम का त्याग किया,
साधक को खुद को सौंप दिया।
साधक-वीणा एकाकार हुए,
सुर-तंत्री फिर रूपाकार हुए।
वीणा का सौंदर्य जाग उठा,
साधक का हाथ भी कांप उठा।
वीणा का आत्मीय सौंदर्य प्रकट,
साधक था प्रवीण बड़ा उद्भट।
सुर-लय-ताल स्फुटित हुए,
वीणा-साधक जब एक हुए।
बस इतनी सी ये कहानी है,
इसके बिना जग बेमानी है।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुंदर रचना, अभिलाषा दी।

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 22 फरवरी 2019 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  3. वीणा निर्जीव पड़ी बेकार।
    वीणा चैतन्य तभी होगी,
    साधक जब करे उसे अंगीकार।
    वाह!!!!
    साधक और वीणा...एक दूसरे के पूरक....
    बहुत ही सुन्दर सार्थक... उत्कृष्ट सृजन।

    जवाब देंहटाएं
  4. वीणा निर्जीव पड़ी बेकार।
    वीणा चैतन्य तभी होगी,
    साधक जब करे उसे अंगीकार।
    शरीर और आत्मा के संबंधो का सार्थक वर्णन....बहुत खूब... सखी

    जवाब देंहटाएं

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