जिंदगी पतंग-सी

पतंग-सी है जिंदगी,
उड़ान बस भर रही।
डोर किसके हाथ है!
साधता इसे कौन है?
पेंच नए लड़ रही,
ख्बाव नए गढ़ रही।
छूती आसमान को,
कल्पना की उड़ान को।
भूल कर सत्य ये,
लक्ष्य से भटक ये।
इधर-उधर डोलती,
वक्त को है तोलती।
टूटता गुमान है,
छूटता आसमान है।
डोर छोड़ती है साथ,
फिर पड़े ये किसके हाथ?
जिंदगी पतंग -सी,
बंधी सांसों की डोर से।
टूटती सांसों की डोर,
पतंग को न कोई ठौर।
निष्प्राण हो कर पड़ी,
जिंदगी की रीत है बड़ी।
डोर का ही काम सारा,
पतंग तो है बेसहारा।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित

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