किताब-ए-जिंदगी

मासूम था बचपन,
दिल कोरा कागज!
सरकी उम्र धूप सम,
वक्त ने लिखी इबारत,
बनने लगी,
किताब-ए-जिंदगी।
हर पन्ने पर,
लिखा जाने लगा हिसाब।
सुख की धूप ,
कागज पर निखरी।
दुख की स्याही ,
कागज पर बिखरी।
जवानी ने देखे
सपने सुहाने,
दिल की किताब पर
लिखे अफसाने।
हर ठोकर का,
बना बही-खाता।
हर कदम हमें था ,
आजमाता।
बनते-बनते ,
किताब बन गई ।
हर पन्ने पर
नई कहानी गढ़़ गई।
कोरे कागज पर
कई रंग बिखरे।
भावों के रूप
उजले और निखरे।
बुढ़ापे में अनुभव ने,
अपना रौब जमाया।
कागज के हर पुर्जे,
पर वही नजर आया।
कभी हंसाती है ,
कभी रूलाती है।
जिंदगी हर रोज
एक कहानी लिख जाती है।


अभिलाषा चौहान
स्वरचित

टिप्पणियाँ

  1. मासूम था बचपन,
    दिल कोरा कागज!
    सरकी उम्र धूप सम,
    वक्त ने लिखी इबारत,
    बनने लगी,
    किताब-ए-जिंदगी।
    बहुत-बहुत सुंदर जीवन्त रचना हेतु हार्दिक बधाई अभिलाषा जी।

    जवाब देंहटाएं
  2. जिंदगी हर रोज
    एक कहानी लिख जाती है।
    जी बिल्कुल, प्रणाम।

    जवाब देंहटाएं
  3. कभी हंसाती है ,
    कभी रूलाती है।
    जिंदगी हर रोज
    एक कहानी लिख जाती है।
    ...सच में यही जीवन की कहानी है... बहुत सुन्दर और विचारणीय अभिव्यक्ति...

    जवाब देंहटाएं
  4. जिंदगी हर रोज
    एक कहानी लिख जाती है।
    ...सच में यही जीवन की कहानी है

    जवाब देंहटाएं

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