पाठ ये किसने पढ़ाया


पीर पर्वत सी बढ़ी जब

कौन सुनता बात किसकी

हो रही कंपित धरा भी

शून्यता क्यों आज सिसकी।


आँगनों में मौन पसरे

नींव हिलती आज बोली

दाँव पर जीवन लगाते

प्रीत की हर बात तोली

व्यंजना भी रो रही है

देख आँसू धार उसकी।


खेल खेला भावना से

स्वार्थ को सिर पर चढ़ाया

लीक खींची और बाँटा

पाठ किसने ये पढ़ाया

बो रहे विष बीज पल-पल

बेल पनपीं आज जिसकी।


शब्द भी अब तीर से है

भेदते मन के गगन को

फूस के तिनके बने सुख

झेलते नित हैं अगन को

बंद खिड़की जब हृदय की

धूल तो अब झाड़ इसकी।


अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'

स्वरचित मौलिक


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