पत्थरों के हैं शहर ये






पत्थरों के हैं शहर ये

लोग भी पत्थर बने

खो गए कानन कहीं पर

ये भवन ऊँचे तने....?


देख कर मन जल रहा है

नयनों से बरसे जल

आज भी अब जल रहा है

जल रहा है इसमें कल

जलजले को देख जड़वत

वेदना बादल घने

खो गए ...................


खोखले होते तनों में

दीमकें ऐसी लगी

मौत भी अब कांपती है

देखती जो दरिंदगी

सभ्यता की सीढ़ियों ने

कलियुगी दानव जने

खो गए......................


साँस भी सौ बार सोचे

छोड़ दूं मैं ये शहर

प्राण तड़पें जग बुरा है

वारुणी पीती जहर

भाव संन्यासी बने हैं

हैं लहू से उर सने

खो गए......................



अभिलाषा चौहान 










टिप्पणियाँ

  1. सच पत्थर जैसे हो चले है शहरी लोग ,, बहुत अच्छी चिंतनशील प्रस्तुति

    https://www.youtube.com/watch?v=svRRJRDlI38

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  2. वाह!बहुत खूब सखी । एकदम सत्य है शहर और शहरी ...पत्थर ही पत्थर।

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  3. नयनों से बरसे जल

    आज भी अब जल रहा है

    जल रहा है इसमें कल

    जलजले को देख जड़वत

    वेदना बादल घने
    वाह!!!!
    बहुत सुन्दर एवं सटीक
    लाजवाब नवगीत।

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह ....अभिलाषा लाजवाब रचना प्रिय बहन 👍👍

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    1. सहृदय आभार आदरणीया दी आपकी स्नेहिल और प्रेरणादायक प्रतिक्रिया पाकर रचना सार्थक हुई सादर

      हटाएं
  5. खोखले होते तनों में
    दीमकें ऐसी लगी
    मौत भी अब कांपती है
    देखती जो दरिंदगी
    सभ्यता की सीढ़ियों ने
    कलियुगी दानव जने
    खो गए......................
    .. पारखी नजरों ने जो देखा महसूस किया, लेखनी ने जीवंत कर दिया ।बहुत ही सुंदर और मार्मिक अभिव्यक्ति

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    उत्तर
    1. सहृदय आभार सखी आपकी प्रेरणादायक और उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया पाकर रचना सार्थक हुई सादर

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  6. विचारों के लिए खिड़की खोलती बढ़िया रचना

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    उत्तर
    1. आदरणीया दीदी आपने रचना को सराहा तो मेरा सृजन सार्थक हो गया। ब्लॉग पर आने के लिए आपका सहृदय आभार सादर

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  7. शहरों के विषय में सटीक सोच । बहुत सी बातों को इस रचना में समेट लिया है । चिंतन मनन करने वाली रचना ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय आभार आदरणीया दी आपकी प्रेरणादायक और उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया पाकर रचना सार्थक हुई सादर

      हटाएं
  8. भवन ही क्यों भला !? ... शहर के मन्दिर, मस्ज़िद/मज़ारों, गुरुद्वारे और गिरजाघरों के निर्माण भी पत्थरनुमा ही हैं और उनके अंदर जिन्हें आदरयुक्त आस्था की आड़ में विराजमान किया गया है, वो सारे के सारे भी पत्थर के ही हैं ..अब भला इतने सारे पत्थरों के बीच और बहुमंजिली इमारतों के बीच .. हम ध्यान कब दे पाते हैं भला कि इन बहुमंजिली पत्थरों के पाने की हमारी होड़ों के साथ-साथ .. हमारी जनसंख्या बढ़ाने की होड़ें भी कम जिम्मेवार नहीं है .. शायद ...

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    उत्तर
    1. सहृदय आभार आदरणीय आपकी प्रतिक्रिया सार्थक है।आपने सत्य कहा है बहुत सारे कारण है समसामयिक स्थिति के लिए जो जिम्मेदार है।आपका ब्लॉग पर आना और प्रतिक्रिया देना रचना को सार्थक बनाया है सादर

      हटाएं
  9. 'आज भी अब जल रहा है, जल रहा है इसमें कल'... बहुत सुन्दर अभिलाषा जी! सुन्दर रचना

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    1. आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए आशीर्वाद है।आपके प्रेरणादायक शब्द मेरे उत्साहवर्धन का आधार बनेंगे। सहृदय आभार आदरणीय सादर

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  10. बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना

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