संशय मिटे तभी सारा




घनगर्जित साखी से फूटी

भावों की उन्नत धारा

तोड़ तोड़ तटबंध उछलती

उन्मत चंचल ज्यों पारा।


रिक्त कूप में छलका पानी

सत्य सुहाना सुंदर सा

अंधकार में चमके जुगनू

हृदय लगे फिर मंदिर सा

बुद्धि कल्पना संगी बनती

संशय मिटे तभी सारा


कलुष कालिमा गरल मिटा सब

निर्मल कलित गगन मन का

धरती अंबर मध्य बसा ये

कुसुम खिला जग यौवन का

और भैरवी नृत्य करे जब

तब टूट गई सारी कारा

तोड़-तोड़................


जड़ता मिटी वेदना उपजी

करुणा के अब बरसे घन

सागर सा विस्तृत उर हो जब

प्रेम बरसता ज्यों सावन

चंद्र चांदनी रस छलकाती

जीत ज्योति की भ्रम हारा

तोड़-तोड़..................







टिप्पणियाँ

  1. शानदार अनुपम रचना

    जवाब देंहटाएं
  2. इस काव्याभिव्यक्ति की प्रशंसा में क्या कहूँ ? निःशब्द हो गया हूँ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपकी प्रतिक्रिया पाकर रचना सार्थक हुई आदरणीय आप ब्लॉग पर नहीं आते तो लगता है सृजन अधूरा सा है।आपके प्रेरक शब्द मेरे लिए संजीवनी के समान है सादर आभार आपका

      हटाएं

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