जोशीमठ का दर्द









मैं जोशीमठ

छीन लिया मेरा रूप,अस्तित्व

स्वतंत्रता

किया अपमान 

बसा दिया तुमने शहर

गंदगी से अटा 

मेरा हृदय फट रहा है 

अंग-अंग मेरा कट रहा है 

कभी था मैं 

शाश्वत संस्कृति का प्रतीक

शांति दूत

छीन ली तुमने मुझसे शांति ।

मैं देता रहा तुम लेते रहे

और हो गए बेशर्म...

मैं पर्यटन स्थल नहीं

मैं हूं अध्यात्म

मैं ही ब्रह्म

पर मेरा दर्द तुम क्या जानो ?

तुमने बजाया सभ्यता का डंका

रौंद दिए मेरे अरमान

ध्यान-योग, ज्ञान का साक्षी

समेटते हुए 

तुम्हारी गंदगी मर रहा हूँ 

धीरे-धीरे-धीरे....

अनियोजित 

व्यवसाय और विकास से

थक चुका हूं मैं

मेरे आँसुओं का मूल्य

तुम क्या जानो ...!!

इन अत्याचारों से

समा जाऊँगा मैं

धरती के गर्भ में

सीता के समान....!!


अभिलाषा चौहान 



टिप्पणियाँ

  1. जोशीमठ के दर्द को करीने से कलमबद्ध किया है आपने🙏

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  2. बहुत यथार्थवादी चित्रण !
    अपने जीवन के 31 साल हमने अल्मोड़ा में बिताए हैं.
    हमने नम आँखों से विकास के नाम पर पहाड़ों का अनवरत दोहन देखा है.
    हमारे सामने जंगल कटते रहे, लकड़ी के लालच में उनमें हर गर्मी जानबूझ कर आग लगाई जाती रही. पर्यावरणविदों से बिना पूछे सड़क और बाँध बनाए जाते रहे और नदी किनारे होटल, मकान बनाए जाते रहे. अब प्रकृति अपने साथ छेड़छाड़ का हमको सबक सिखा रही है.

    जवाब देंहटाएं
  3. आपने सत्य कहा आदरणीय प्रकृति के साथ खिलवाड़ करना सदैव ही संकट को न्यौता देना है। परिस्थिति और पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए यदि विकास हो तो बात समझ में आती है।पहले सरकारें आंख मूँदे रहती हैं चार-चार, पांच-पांच मंजिल के भवन निर्माण होते रहते हैं। पहाड़ तो दरकेंगे भी और धंसेंगे भी।आपका हृदय तल से आभार।

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  4. बहुत सुंदर समसामयिक अभिव्यक्ति

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