एक शाप है निर्धनता
संगी बनी है दीनता
रोटी के टुकड़े को तरसे
कुंठा बन गई हीनता
कैसा कोप विधाता का ये
एक हँसे दूजा रोए
कोई सुख की गठरी थामे
कोई अपना सब खोए
आग उदर की रोज जलाए
मिटती कहाँ ये मलिनता
रोटी के टुकड़े को तरसे
कुंठा बन गई हीनता।।
मानवता हो रही कलंकित
पूँजीवाद के फेर में
एक तिजोरी भर कर बैठा
एक कचरे के ढेर में
मरें भूख से जीव तड़पते
एक शाप है निर्धनता
रोटी के टुकड़े को तरसे
कुंठा बन गई हीनता
कहीं छलकती मदिरा प्याली
कहीं नयन से नीर बहा
देख रहा श्रम का अवमूल्यन
शोषण का फिर दंश सहा
कुचल रहा सपना जीवन का
सोती रहती सज्जनता
रोटी के टुकड़े को तरसे
कुंठा बन गई हीनता।।
अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'
सादर समीक्षार्थ 🙏🌹
मार्मिक सृजन सखी
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और मार्मिक।
जवाब देंहटाएंश्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ आपको।
आपको भी कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं 💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 14 अगस्त 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन।
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