पौध का होता मरण
आँधियाँ कैसी चलीं हैं
लग रहा कैसा ग्रहण
वृक्ष बनने से पूर्व ही
पौध का होता मरण।।
विष बुझे ये तीर छूटें
स्वार्थ अपना साधते
व्यूह ऐसा रच रहे हैं
पाश अपने बाँधते
भावनाएँ मर रहीं क्यों
विषमयी वातावरण
वृक्ष....................।।
खींचते ये रेख कैसी
टूटते सब प्रेम बंध
मानवी मृत हो चली अब
शीश चढ़ बैठे हैं अंध
नीतियाँ धुसरित हुईं
मूल्य का होता हरण
वृक्ष.....…............।।
जाल में पंछी फँसा ज्यों
भूलता अपना धर्म
रूढ़ियाँ पायल पगों की
कौन समझेगा मर्म
दामिनी गिरती सुखों पर
ले कलुषता के चरण
वृक्ष......................।।
अभिलाषा चौहान
गहन भाव लिए सृजन ।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीया सादर
हटाएंअभिलाषा जी, कविता तो अच्छी किन्तु मेरे देश को चमकाने वाले, उसे फिर से जगद्गुरु बनाने वाले, सपूतों की शान में कैसी भी गुस्ताख़ी मैं सहन नहीं करूंगा.
जवाब देंहटाएंयदि ये दूध के धुले महानुभाव न होते तो हम तो फिर से बंदरों की तरह पेड़ों पर रहने को विवश हो जाते.
आदरणीय सहृदय आभार,आपकी प्रतिक्रिया गूढ़ अर्थ लिए हुए है,यह मेरे लिए प्रेरणादायक है।सादर
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार १५ जुलाई २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सहृदय आभार सखी सादर
हटाएंजी अभिलाषा जी,मेरा लिखा आमंत्रण शायद स्पेम में चला गया है कृपया आप देखकर प्रकाशित कर दीजिए।
जवाब देंहटाएंसादर।
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 15 जुलाई 2022 को 'जी रहे हैं लोग विरोधाभास का जीवन' (चर्चा अंक 4491) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
सहृदय आभार आदरणीय सादर
हटाएंबहुत सुन्दर सृजन ।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी सादर
हटाएंआपकी काव्य-रचना गुणवत्ता के निकष पर पूर्णतया खरी उतरती है अभिलाषा जी। इसका पठन ही पर्याप्त नहीं, इसके मर्म को आत्मसात करना आवश्यक है।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आपका आपकी प्रतिक्रिया सदैव प्रेरणादायक और
हटाएंउत्साहवर्धक होती है सादर
बहुत बहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंसहृदयआभार आदरणीय सादर
हटाएंसुन्दर गीत
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत बढ़िया कहा सखी।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सराहनीय।
सादर
सहृदय आभार सखी सादर
हटाएंबहुत खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीया सादर
हटाएंखींचते ये रेख कैसी
जवाब देंहटाएंटूटते सब प्रेम बंध
मानवी मृत हो चली अब
शीश चढ़ बैठे हैं अंध
नीतियाँ धुसरित हुईं
मूल्य का होता हरण
बहुत ही लाजवाब एवं चिंतनपरक नवगीत
वाह!!!
सहृदय आभार सखी आपकी प्रेरणादायक प्रतिक्रिया हेतु सादर
हटाएं