मूक मन चंचल......
माँगता ऐसे खिलौने
चाहिए बस चाँद तुझको
तारकों के ये दिठौने।
तू हठी शिशु सा लगे है,रूठता हर बात पर।
मानता कब बात अच्छी,लग रहे हैं तुझको पर।
पंख बिन उड़ता फिरे तू,चाहता तू क्या बता
रोक तुझको अब न पाऊँ,तू रहा मुझको सता।
कंटकों से दूर भागे
फूल के माँगे बिछौने
है भ्रमर सा तू सदा से
देखता सपने सलोने।
रास क्यों आता नहीं है,जो सदा से पास तेरे।
भागता फिरता सदा से,बंधनों के तोड़ घेरे।
टूटती उम्मीद रोए,कल्पना के पंख टूटे।
तू बधिर निष्ठुर छली है,फूँकते सब शंख फूटे।
ले रहा नित नव परीक्षा
नयन के भरते भगोने
अडिग बन कब तक रहूँगी
तू चला सबकुछ डुबोने।
अभिलाषा चौहान
सच है जो पास होता है उससे तृप्ति नहीं होती , जो नहीं है उसी के पीछे इंसान भागता है या दुखी होता रहता है ।
जवाब देंहटाएंसहृदयआभार आदरणीया आपकी प्रेरणादायक प्रतिक्रिया हेतु
हटाएंबहुत सुन्दर सराहनीय
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय,सादर
हटाएंचंचल मन की अच्छी ख़बर ली है आपने! महान होते हैं वे लोग जो
जवाब देंहटाएंजो अपने मन को नियंत्रण में कर लेते हैं! सार्थक सृजन के लिए आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ।
सहृदय आभार आपकी सुंदर प्रतिक्रिया हेतु,सादर
हटाएंवाह लाजबाव अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीया,सादर
हटाएंबहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी
हटाएंले रहा नव नित परीक्षा। जी हाँ अभिलाषा जी, सार तो है आपकी बात में। निश्चय ही प्रशंसनीय है आपकी यह काव्य-रचना। संभवतः 'नव नित परीक्षा' के स्थान पर 'नित नव परीक्षा' कहना व्याकरणीय दृष्टि से अधिक उपयुक्त होता।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय आपकी प्रेरणादायक प्रतिक्रिया के लिए।अपने सही सुझाव दिया है , मैं सुधार करती हूँ।आप जिस प्रकार रचना का आस्वादन करते हैं,उससे मुझे नई ऊर्जा मिलती है,सादर
हटाएंसहृदयआभार सखी,सादर
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