वीणा का संताप
रुदन करती आज वीणा
राग में विराग कैसा
सो गए क्यों सप्त सुर भी
गीत लगे भार जैसा।
प्राण मेरे घुट रहे क्यों
वेदना घुली सुरों में
हूँ विवश क्य़ों आज मैं भी
रस घुले न अब उरों में
खो रहा अस्तित्व मेरा
काल कहाँ रहा वैसा
सो गए क्यों सप्त सुर भी
गीत लगे भार जैसा
रुदन---------------।।
भाव-सागर जड़ हुआ है
उठे न तरंग कोई
रागिनी माधुर्य रीती
प्रीत भी खोई खोई
तार अब जुड़ते नहीं है
ये मुखरित मौन कैसा
सो गए क्यों सप्त सुर भी
गीत लगे भार जैसा
रुदन---------------।।
धूल खाती सी पड़ी हूँ
लौ लगन की टूट चली
दीप्ति बुझने लगी अब
जा रही हूँ कौन गली
साधना रहती अधूरी
टूट रहा स्वप्न ऐसा
सो गए क्यों सप्त सुर भी
गीत लगे भार जैसा
रुदन----------------।।
अभिलाषा चौहान
बहुत ही सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंनारी हो, न निराश करो मन को,
जवाब देंहटाएंउत्साह से फिर उत्थान करो !
वीणा के वादक और वीणा अब लुप्त प्रायः हो रहे हैं, वीणा का दर्द बहुत सुंदर से उकेरा है आपने सखी।
जवाब देंहटाएंसुंदर सृजन।
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (१४-११-२०२२ ) को 'भगीरथ- सी पीर है, अब तो दपेट दो तुम'(चर्चा अंक -४६११) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
वीणा का दर्द बहुत ही खूबसूरती से व्यक्त किया है आपने, अभिलाषा दी।
जवाब देंहटाएंवीणा को माध्यम बना जीवन विमर्श को उद्बोधित करता सुंदर गीत ।
जवाब देंहटाएंवाह! मार्मिक अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंआह! हृदय में हूक-सी हुई....
जवाब देंहटाएंभाव-सागर जड़ हुआ है
जवाब देंहटाएंउठे न तरंग कोई
रागिनी माधुर्य रीती
प्रीत भी खोई खोई
तार अब जुड़ते नहीं है
ये मुखरित मौन कैसा
वीणा के माध्यम से जीवन सत्य को उजागर किया है आपने ...
बहुत ही लाजवाब सृजन।
रुदन करती आज वीणा
जवाब देंहटाएंराग में विराग कैसा
सो गए क्यों सप्त सुर भी
गीत लगे भार जैसा।
आप की इस गीत ने एक पुराने गीत की याद दिला दी
"ये कैसा सुर मंदिर है जिसमे संगीत नहीं"
हृदयस्पर्शी सृजन सखी