पर्वत दरके सहमे झरने
पर्वत दरके सहमे झरने,
सिकुड़ी सिमटी सरिताएँ।
वन-उपवन भयभीत लगे,
कलियाँ डरकर मुरझाएँ।
धीर धरे धरणी अब हारी,लावा उफने सीने में।
अंबर आहत आए आफत, मुश्किल होती जीने में।
मूढ़ मति मानव करे शोषण,घोल रहा विष जीवन में।
दूषित होता ये जग सारा,रोग लगे बस तन-मन में।
चौपायों के छिने आसरे,
देख देख मन घबराए।
बेबस से सब हुए पखेरू,
ठौर कहाँ वे अब पाएँ।
नद-नाले का फर्क मिटाया,पनघट कुएं सभी प्यासे।
धरती का सीना अब फाड़े,रूठ गए अब चौमासे।
छीन लिया माता का आँचल,अपने सुख को पाने में।
उजड़ रही ये बगिया सारी,लगा चाँद पर जाने में।
शोषक शासक बनकर बैठा,
रूप नए नित दिखलाए।
संसाधन की बाट लगाता,
गीत विकास के है गाए।
अभिलाषा चौहान
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 29 नवम्बर 2022 को साझा की गयी है....
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत ही सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंसत्य को उजागर करती रचना
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (29-11-22} को "उम्र को जाना है"(चर्चा अंक 4622) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
सहृदय आभार सखी सादर
हटाएंबहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंसच विकास के नाम में इस धरा का कितना विनाश हो रहा है इसे अनदेखा कर दिया जाता है। . सार्थक चिंतनशील रचना
जवाब देंहटाएंशोषक शासक बनकर बैठा,
जवाब देंहटाएंरूप नए नित दिखलाए।
संसाधन की बाट लगाता,
गीत विकास के है गाए।
... सचमुच ! विकास के नाम पर पृथ्वी और पर्यावरण के साथ जो खिलवाड़ होता दिख रहा है, वह बड़ा ही विनाशकारी है, चिंतनपूर्ण विषय पर सारगर्भित रचना।