टूटते दर्पण हृदय के





टूटते दर्पण हृदय के

घिर रही है रात काली

आज उपवन तब उजड़ते

छोड़ते जब साथ माली।


छाँव सपना बन चली अब

ठूँठ पत्थर बन खड़े हैं

प्रेम के सब तार टूटे

बुद्धि पर ताले जड़े हैं

कौन सुनता पीर मन की

बोल लगें जैसे गाली।


नीड़ उजड़े आज देखे

शून्यता ने पग पसारे

गीत रूठे साज झूठे

छूटते हैं सब सहारे

हाथ ही जब साथ छोड़ें

कौन बजाए तब ताली।


बाँटते आँगन घरों के

नोचते संबंध सारे

सूखते सब नैन निर्झर

चोट ऐसी भाग्य मारे

शूल भरते आह देखे

छोड़ते जब पुष्प डाली।


अभिलाषा चौहान 


टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही सुन्दर रचना

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  2. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (6-11-22} को "करलो अच्छे काम"(चर्चा अंक-4604) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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    कामिनी सिन्हा

    जवाब देंहटाएं

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