बेबस-सा सब देख रहा
धर्म खड़ा ठिठका-ठिठका
बेबस-सा सब देख रहा
सत्यता की होती मृत्यु
झूठ किलक कर खेल रहा।
घृणा जमाती अपना डेरा
ईर्ष्या खेले घर-घर में
निंदा बैठ करे पंचायत
अब पीर पैठती दर-दर में
आस लाज का छिना ठिकाना
जग बैर -क्रोध फल- फूल रहा ।
प्रेम बना संन्यासी डोले
घर-घर मांग रहा भिक्षा
करुणा दया विरहनी बनती
मरती जाती हैं इच्छा
दर्पण सा विश्वास बना है
बस तड़क-तड़क जो टूट रहा।
शांति अहिंसा बनी अपरिचित
उच्छृंखलता सिर चढ़ बोली
नींव स्वार्थ की भवन लोभ का
संस्कारों की निकली डोली
बारे न्यारे हुए द्वेष के
अब पाप मुखौटा चमक रहा।
अभिलाषा चौहान
बिलकुल वास्तविकता को लिख दिया आपने...!
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार शिवम जी सादर
हटाएंसटीक अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सादर
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 10 नवंबर 2022 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
सहृदय आभार आदरणीय सादर
हटाएंसत्य को उद्घोषित करती सुन्दर रचना!
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय सादर
हटाएंयथार्थ पर चिंतनपूर्ण अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी सादर
हटाएंवर्तमान की अवस्था यही है। एक दिन जरूर सूरत बदलेगी ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविता
सहृदय आभार
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
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