बादलों के पार उड़ते




कामना के इस भँवर में

देखता आदर्श झड़ते

कर्म का फल ना मिले तो

टूटते घर हैं उजड़ते


रिक्त मन में शून्यता फिर

डालती अपना बसेरा

डूबती नौका कहे तब

अब कहाँ होगा सवेरा

साथ में कोई नहीं जब

कालिमा के पैर पड़ते।


प्राण पंछी फड़फड़ाता

पंख टूटे देख अपने

चीख घुटती नैन सूखे

धूल मिलते देख सपने

चक्र घूमे भाग्य बदले

पल दुखों के हैं सिकुड़ते।


ठूँठ पर ज्यूँ कोंपलों ने

आस जीवन की जगाई

दीप जो बुझने चला था

लौ लगन की पास पाई

और हिय में चाह जागे

मेघ ज्यूँ नभ में घुमड़ते।


फूटते अंकुर धरा से

आज लिखते हैं कहानी

साँस चलती बोलती अब

कर्म की गंगा बहानी

स्वप्न नित बनकर पखेरू

बादलों के पार उड़ते।


अभिलाषा चौहान 



टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुन्दर !
    धैर्य, साहस और उत्साह के साथ जुटने वाले के ही तो स्वप्न साकार होते हैं.

    जवाब देंहटाएं
  2. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (8-11-22} को "कार्तिक पूर्णिमा-मेला बहुत विशाल" (चर्चा अंक-4606) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
    ------------
    कामिनी सिन्हा

    जवाब देंहटाएं
  3. निराशहीन मन में आशा का संचार करती सुंदर कविता।🙏🙏

    जवाब देंहटाएं
  4. फूटते अंकुर धरा से
    आज लिखते हैं कहानी
    साँस चलती बोलती अब
    कर्म की गंगा बहानी
    बहुत सुन्दर भाव लिये सुन्दर सृजन सखी !

    जवाब देंहटाएं

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