साँझ हुई माँ लाई दाना -नवगीत

 





साँझ हुई माँ लाई दाना

प्रत्याशा में शावक चहके

पूरे दिन से करें प्रतीक्षा 

पेट क्षुधा पावक बन दहके।


तिनका-तिनका जोड़-जोड़ कर

नीड़ बनाती कितना सुंदर

बड़े यत्न से रक्षा करती

पाल रही सपनों को अंदर

आँधी-बर्षा और शीत से

लड़ती है वह सबकुछ सहके


छोटे-छोटे पंख भले हों

उड़ती फिरती नील गगन में

शावक उसके उड़ना सीखें

रहें न पीछे इसी लगन में

सफल हुई तब ममता उसकी

शावक का जीवन जब महके


पंख बने फिर उड़ते शावक

ममता देख-देख खुश होती

छोड़ नीड़ को उड़ जाते हैं

मोह बँधी वह भी कब रहती

जीवन बंधन-मुक्त रहे जब

तभी खुशी मन आँगन लहके।


अभिलाषा चौहान







टिप्पणियाँ

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(०३-१० -२०२२ ) को 'तुम ही मेरी हँसी हो'(चर्चा-अंक-४५७१) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुन्दर कविता अभिलाषा जी !
    अब ये दिलकश नज़ारे हमको कहाँ देखने को मिलते हैं?
    आज तो हमको गौरैया देखने के लिए भी चिड़ियाघर जाना पड़ता है.

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर सरल कविता
    कह गई बात बङी संजीदा

    जवाब देंहटाएं

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