कही-अनकही
कुछ कही अनकही बातें
अंतरतम में
सदा मचाती शोर है
उत्ताल तरंगें भावों की
लहराती पुरजोर हैं
अनुभूति की अभिव्यक्ति में
मुझको आता जोर है
मेरे मन की मैं ही जानू
न जाने कोई और है
भावों की इस नगरी का
न कोई ओर या छोर है
शब्द चुनूं तो कम पड़ जाए
वाणी में न जोर है
कैसे बांधू मन को मन से
पकड़ बडी़ कमजोर है
सपने बुनती खुली आंखों से
बंद आंखों की किनोर है
भावमेघ ऐसे उमडे हैं
बरसी बूंदे जोर है
बरस बरस के ऐसे बरसी
भीगी आंखों की कोर है ।
अभिलाषा चौहान
अंतरतम में
सदा मचाती शोर है
उत्ताल तरंगें भावों की
लहराती पुरजोर हैं
अनुभूति की अभिव्यक्ति में
मुझको आता जोर है
मेरे मन की मैं ही जानू
न जाने कोई और है
भावों की इस नगरी का
न कोई ओर या छोर है
शब्द चुनूं तो कम पड़ जाए
वाणी में न जोर है
कैसे बांधू मन को मन से
पकड़ बडी़ कमजोर है
सपने बुनती खुली आंखों से
बंद आंखों की किनोर है
भावमेघ ऐसे उमडे हैं
बरसी बूंदे जोर है
बरस बरस के ऐसे बरसी
भीगी आंखों की कोर है ।
अभिलाषा चौहान
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